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________________ एस धम्मो सनंतनो से जो पैसे मिलेंगे तो एक भैंस खरीद लूंगा। फिर दूध बेचूंगा, फिर दही बेचूंगा, फिर घी बेचूंगा, फिर पैसे आते जाएंगे, तो मैं भी इससे अगर दस गुना बगीचा लगाकर न दिखलाया तो मेरा नाम मेरा नाम नहीं। ककड़ियां ही ककड़ियां पैदा करूंगा। ___ और यह ध्यान रखना, उसके मन में खयाल आया कि जिस तरह मैं चोरी करने आया हूं, कोई अगर चोरी करने आ गया तो? तो उसने कहा, ध्यान रखना, इस तरह का मेरे बगीचे में न चलेगा। अब वह सोचने लगा जोर-जोर से कि यह भी हो सकता है, चोरी हो जाए। उसने कहा, इस तरह मेरे बगीचे में न चलेगा, एक पहरेदार रख दूंगा। और रख ही नहीं दूंगा पहरेदार, क्योंकि पहरेदारों का आजकल क्या भरोसा, खुद ही मिल जाएं चोरों से, तो बीच-बीच में जाकर चिल्लाकर आवाज देता रहूंगा-सावधान, होशियार रहना। इतने जोर से निकल गयी यह बात-सावधान, होशियार रहना कि वह माली आ गया भागकर, यह पकड़े गए बुरी तरह। ककड़ी अभी तोड़ी भी न थी! संयोजन बहुत कर लिया। संयोजन जरूरत से ज्यादा हो गया। संयोजन में जीता है संसारी मन। संयोजन के बिना जीता है संन्यासी मन। संन्यास यानी सहज होकर जीना। 'जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भांति रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं।' बुद्ध कहते हैं, क्रोध न आया, क्रोध की परिस्थिति न बनी और तुमने क्रोध न किया, यह थोड़े ही कोई गुण है। किसी ने गाली न दी तो तुमने क्रोध न किया, किसी ने बुरा-भला न कहा तो तुमने क्रोध नहीं किया, तो यह थोड़े ही कोई गुण है। 'चढ़े हुए क्रोध को जो भटक गए रथ की भांति रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं।' किसी ने गाली दी और तुमने क्रोध न किया, किसी ने जूता फेंक दिया और तुमने क्रोध न किया...। ___'जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भांति रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं, दूसरे तो केवल लगाम थामने वाले हैं।' कभी-कभी ऐसा होता है न, तुम्हारा छोटा बेटा भी रथ में बैठा हो और लगाम थाम लेता है। अब रथ तो चले गए, कभी-कभी तुम्हारी कार में बैठा हो, तो स्टीयरिंग व्हील सम्हाल लेता है। हालांकि तुम बिलकुल नहीं छोड़ देते, तुम पकड़े रहते हो, हिसाब रखते हो, मगर वह थामकर बड़ा मजा लेने लगता है। मगर वह . सिर्फ लगाम थामने वाला है। अड़चन आ जाएगी तो उससे कुछ गाड़ी सम्हलने वाली नहीं है। सम्हालनी तुम्हें ही पड़ेगी। वह कोई सारथी नहीं है। तो बुद्ध कहते हैं, 'क्रोध को अक्रोध से जीते, असाधु को साधु से जीते।' हमारे भीतर क्रोध पड़ा है, उसे अक्रोध से जीतना है। और हमारे भीतर असाधु पड़ा है, उसे साधु से जीतना है। और हमारे भीतर कृपणता पड़ी है, उसे दान से जीतना 146
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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