SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुम तुम हो कोधं जहे विष्पजहेय्य मानं सञोजनं सब्बमतिक्कमेय्य। तं नामरूपस्मि असज्जमानं अकिञ्चनं नानुपातन्ति दुक्खा।। यो वे उप्पतितं कोधं रथं भन्तं' व धारये। तमहं सारथिं ब्रूमि रस्मिग्गाहो इतरो जनो।। अक्कोधेन जिने कोधं असाधु साधुना जिने। जिने कदरियं दानेन सच्चेन अलिकवादिनं ।। सच्चं भणे न कुज्झेय्य दज्जाप्पस्मिम्पि याचितो। एतेह तीहि ठानेहि गच्छे देवान सन्तिके।। 'क्रोध को छोड़े: अभिमान को त्याग दे; सारे संयोजनों के पार हो जाए। इस तरह नाम-रूप में आसक्त न होने वाले तथा अकिंचन पुरुष को दुख संतप्त नहीं करते।' ___'जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भांति रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं; दूसरे तो केवल लगाम थामने वाले हैं।' . 'अक्रोध से क्रोध को जीते। असाधु को साधु से जीते। कृपण को दान से जीते। और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीते।' 'सच बोले। क्रोध न करे। मांगने पर थोड़ा भी अवश्य दे। इन तीन बातों से मनुष्य देवताओं के पास पहुंचता है।' . ऐसी सूत्र में गाथाएं बुद्ध ने रोहिणी को कहीं। इनमें कुछ शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं, उनको अलग खयाल में ले लें। 'क्रोध को छोड़े; अभिमान को त्याग दे; सारे संयोजनों के पार हो जाए।' सारे संयोजनों के पार हो जाए। कल के लिए आयोजन बनाकर न जीए। सहज जीए। जो होगा कल, होगा। जैसा होगा वैसा होगा। हम तो मौजूद होंगे तो जो बन सकेगा कल, कल कर लेंगे। संयोजन न बनाए। अहंकार बड़ी योजनाएं बनाता है। अहंकार कल के लिए बड़े सेतु बनाता है। अहंकार कल में ही जीता है। इसलिए जी ही नहीं पाता। कल और परसों, न केवल इस संसार में, बल्कि परलोक में भी विचार रखता है कि कैसा-कैसा इंतजाम करना है। क्या पुण्य करूं, क्या न करूं, ताकि परलोक में भी जगह परमात्मा के मकान के बिलकुल बगल में मिले। यह जो संयोजन है, यह जो प्लानिंग है, इसको बुद्ध कहते हैं, यह बंधन है। सहज होकर जीए। तुम्हारे सारे संयोजन काल्पनिक हैं। लियो तालस्ताय की मैं एक कहानी पढ़ रहा था। एक गरीब आदमी एक बगीचे में ककड़ियां चुराने घुसा। खूब ककड़ियां लगी थीं। अभी ककड़ियां उसने तोड़ी नहीं थीं, लेकिन ककड़ियों को देखकर उसका मन बड़ी कल्पनाओं से भर गया। उसने कहा कि आज तो गजब हो गया! सारी ककड़ियां ले जाऊंगा। बेचकर जो पैसा आएगा उससे मुर्गियां खरीद लूंगा। अंडे बेचूंगा। अंडों 145
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy