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________________ एस धम्मो सनंतनो सच्चा आदमी न तो बेशर्म होता है, न शर्म वाला होता है। सच्चा आदमी बस सच्चा होता है। उसमें कोई लज्जा नहीं होती और न निर्लज्ज होता है। निर्लज्ज होने की भी कोई जरूरत न रही, वह भी लज्जा का ही रूप है। वह भी लज्जा को तोड़ता है तब कोई निर्लज्ज होता है। लेकिन जिसके पास लज्जा है ही नहीं, वह तोड़ेगा क्या? बांस होगा तो बांसुरी बज सकती है, बांस ही न होगा तो बांसुरी कैसे बजेगी? एक ऐसी चित्त की दशा है, जो लज्जा-अतीत। तो रोहिणी आयी भी तो चेहरे पर घूघट डालकर आयी। दूसरों से तो आदमी लज्जा करता ही, अपनों से भी करता है—जितना अहंकार हो उतनी ही लज्जा बढ़ती चली जाती है। भाई को आयी थी मिलने! और भाई भी कोई साधारण भाई न था। बुद्ध के बड़े शिष्यों में एक था। पहुंचे हुए सिद्ध पुरुषों में एक था। पूछा भाई ने, क्या कारण? कहा, छवि रोग हुआ है। फिर भाई ने कुछ और न कहा उस संबंध में। उसने कहा, तू एक काम कर, इतने भिक्षु आए गांव में, इनकी सेवा में लग। एक बड़ा भवन बनाना है। ये दस हजार भिक्षु टिकेंगे कहां? वर्षा आती है करीब, इनको रहने का इंतजाम करना है, छप्पर लगवाना है। ___ उसके पास रुपए भी न थे। लेकिन भाई ने कभी कुछ इसके पहले कहा भी न था! मानिनी स्त्री रही होगी। सब जेवर-जवाहरात बेच दिए। यह मान पर चोट पड़ गयी होगी—यह भी कह न सकी कि मेरे पास रुपए भी नहीं हैं, इतना मैं कहां कर सकूँगी। किया, नहीं कर सकती थी तो भी किया। लेकिन करने में डूब गयी। इस बात को खयाल में रखना। तुम्हारे जीवन के श्रेष्ठतम क्षण वे ही होते हैं जब तुम अपने को भूल जाते हो, कुछ भी करने में भूल जाते हो। चित्रकार चित्र बनाने में भूल जाता है, या कि मूर्तिकार मूर्ति बनाने में भूल जाता है, या कि नर्तक नाचने में भूल जाता है, या कि गीतकार गीत में भूल जाता है। जब तुम भूल जाते हो, किसी भी क्षण जहां तुम्हें विस्मरण हो जाता है अपना, उसी घड़ी जीवन में परम क्षण उतर आता है। जहां तुम अपने को भूले, वहां अहंकार हट गया। एक घड़ी को बादल छंट गए, सूरज निकला, एक घड़ी को अंधेरा टूटा और रोशनी उतरी। एक घड़ी को वर्षा हो गयी तुम पर अमृत की। __इसलिए जीसस ने सेवा पर बहुत जोर दिया है। सेवा का यही अर्थ है, इतना ही अर्थ है कि तुम दूसरे में अपने को डुबा देना। तो तुम्हारे जीवन में थोड़ी देर को निरअहंकारिता की भावदशा पैदा होगी। उससे स्वाद लगेगा। और जब तुम्हें यह पता चल जाएगा कि क्षणभर को भूलने में इतना स्वाद आता है, इतनी मिठास, तो तुम फिर सदा के लिए यह अहंकार छोड़ देना चाहोगे। चाहोगे ही, यह तर्कयुक्त होगा। स्वाद लग जाए तो तुम फिर चाहोगे कि पूरा ही स्वाद मिल जाए। जब अहंकार भुलाने में इतना रस है, तो अहंकार को बिलकुल गिरा देने में कितना रस न होगा। लग गयी काम में। खड़ी रहती होगी भरी धूप में। भूल ही गयी अपने रूप को। 138
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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