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________________ तुम तुम हो संन्यास की धारणा इस देश में पैदा हुई, क्योंकि हमें यह बात समझ में आ गयी कि मन दो ढंग से काम कर सकता है। मन तटस्थ है। मन की अपनी कोई धारणा नहीं है। मन यह नहीं कहता, ऐसा करो। तुम पर निर्भर है। तुम चाहो तो मन को शरीर के पीछे लगा दो, तो वह शरीर की गुलामी करता रहेगा। मन तो बड़ा अदभुत गुलाम है। उस जैसा आज्ञाकारी कोई भी नहीं । तुम उसे आत्मा की सेवा में लगा दो, वह आत्मा की सेवा में लग जाएगा। तुम उसे लोभ में लगा दो, वह लोभ बन जाएगा। तुम उसे करुणा में लगा दो, वह करुणा बन जाएगा। सारे धर्म की कला इतनी ही है कि हम मन को नीचे जाने से हटाकर ऊपर जाने कैसे लगा दें। और खयाल रखना, जो सीढ़ियां नीचे ले जाती हैं वही सीढ़ियां ऊपर ले जाती हैं। सीढ़ियां तो वही हैं। ऐसा भी हो सकता है कि दो आदमी बिलकुल एक जैसे हों, एक जगह हों, और फिर भी एक संन्यासी हो और एक संसारी हो। ऐसा समझो कि किसी मकान की सीढ़ियां तुम चढ़ रहे हो । एक आदमी ऊपर से नीचे उतर रहा है, तुम ऊपर चढ़ रहे हो । तीस सीढ़ियां हैं। पंद्रहवीं सीढ़ी पर तुम दोनों का मिलना हो गया, तुम ऊपर की तरफ जा रहे हो, कोई नीचे की तरफ आ रहा है। पंद्रहवीं सीढ़ी पर तुम खड़े हो, दोनों एक ही जगह खड़े हो, लेकिन फिर भी एक जैसे नहीं हो, क्योंकि एक नीचे जा रहा है और एक ऊपर जा रहा है। दोनों बिलकुल एक जैसे लगोगे, कोई तो फर्क नहीं होगा, क्योंकि सीढ़ी तो पंद्रहवीं होगी, स्थान तो वही होगा। लेकिन फिर भी गहरे में फर्क है— एक ऊपर जा रहा है, एक नीचे आ रहा है, दिशा में फर्क है, उन्मुखता भिन्न-भिन्न है। I जब मन देहोन्मुख होता है, तो संसार । और जब मन आत्मोन्मुख हो जाता है, रामोन्मुख हो जाता है, तो संन्यास। तो कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि संसारी और संन्यासी बिलकुल एक जैसा लगे, एक ही सीढ़ी पर खड़ा हुआ मालूम पड़े, फिर भी अगर उनकी दिशाएं अलग हैं, उनकी आंखें अगर अलग दिशाओं में देख रही हैं, तो वे भिन्न हैं, मौलिक रूप से भिन्न हैं ।' مجی आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि जब तक हम मन को स्वस्थ न कर लें, तब तक शरीर की बहुत सी बीमारियां ठीक हो ही नहीं सकतीं। इसलिए पश्चिम में एक नए तरह की चिकित्सा पैदा हो रही है – साइकोसोमेटिक । शरीर और मन दोनों का इलाज साथ-साथ होना चाहिए। और शरीर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है मन का इलाज। बीमारी अगर मन में हो और शरीर पर केवल उसकी छाया पड़ती हो, तो तुम छाया को पोंछते रहो, मिटाते रहो, इससे कुछ भी न होगा। मन से हट जाए, तो शरीर तत्क्षण स्वस्थ हो जाएगा। इस कहानी का पहला तो यही अदभुत अर्थ कि यह जो रोहिणी है, यह अत्यंत अहंकारी रही होगी । अहंकार स्त्री को होता है तो रूप का होता है। आदमी को अहंकार होता है तो नाम का होता है । दो ही अहंकार हैं – नाम, रूप । इसलिए माया 131
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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