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एस धम्मो सनंतनो
__ इसका कारण? इसका कारण न तो दुख है, न बीमारी है। इसका कारण यह है कि मूल को हम छूते नहीं।
समझो कि एक वृक्ष की जड़ों में रोग लग गया है और पत्ते विकृत होकर आने लगे हैं। पूरे खिलते नहीं, पूरे खुलते नहीं, हरियाली खो गयी है। तुम पत्ते काटते रहो, या पत्तों पर मलहम लगाते रहो, या पत्तों पर जल का छिड़काव करते रहो-गुलाब जल का छिड़काव करो, तो भी कुछ बहुत होगा नहीं। जड़ जब तक आमूल स्वस्थ न हो तब तक कुछ भी न होगा।
मनुष्य की जड़ उसके मन में है। मनुष्य शब्द ही मन से बना है। मनुष्य यानी जो मन में रुपा है, मन में गड़ा है। उर्दू का शब्द है, आदमी, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं। उसमें बहुत गहरा अर्थ नहीं है। उसमें जो अर्थ भी है, वह छिछला है। आदम का अर्थ होता है, मिट्टी। जो मिट्टी से बना है, उसको कहते आदमी। क्योंकि भगवानं ने पहले आदमी को मिट्टी से बनाया और फिर उसमें श्वास फूंक दी, इसलिए उसका नाम आदम। फिर आदम के जो बच्चे हुए, उनका नाम आदमी। आदमी मिट्टी से बना है, मतलब आदमी देह है।
हमारी पकड़ इससे गहरी है। हम कहते हैं, मनुष्य। अंग्रेजी का मैन भी संस्कृत के मन का ही रूपांतर है। वह भी महत्वपूर्ण है। हम कहते हैं, मनुष्य। हम कहते हैं, मिट्टी नहीं है आदमी, आदमी है मन, आदमी है विचार, आदमी है उसका मनोविज्ञान। जैसे ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी आदम को पहला आदमी मानते हैं, हम नहीं मानते। क्योंकि आदम होना तो आदमी का ऊपरी वेश है, वह असली बात नहीं है। असली बात तो भीतर छिपा हुआ सूक्ष्म रूप है।
मनुष्य का अर्थ ही होता है, जिसकी जड़ें मन में गड़ी हैं। लेकिन आधुनिक खोजें इस सत्य के करीब आ रही हैं। आधुनिक खोजें इस बात को स्वीकार करने लगी हैं कि आदमी शरीर पर समाप्त नहीं है। न तो शरीर पर शुरू होता है, न शरीर पर समाप्त होता है। शरीर तो घर है जिसमें कोई बसा है। फिर हम यह भी नहीं कहते कि आदमी मन पर समाप्त हो जाता है, हम कहते हैं, मन में गड़ा है। है तो मन से भी पार। इसलिए आदमी है तो आत्मा।
अब इन तीन शब्दों को ठीक से लेना-आत्मा, मन, देह। मन दोनों के बीच में है। मन को तुम शरीर से जोड़ दो तो संसारी हो जाते हो और मन को तुम आत्मा से जोड़ दो तो संन्यासी हो जाते हो। मन के जोड़ का सारा खेल है। आत्मा भी तुम्हारे भीतर है, शरीर भी तुम्हारे पास है, बीच में डोलता हुआ मन है। इसलिए मन सदा डोलता है। डांवाडोल रहता है। मध्य में लहरें लेता रहता है। अगर तुम्हारा मन शरीर की छाया होकर चलने लगे तो तुम संसारी, अगर तुम्हारा मन आत्मा की छाया होकर चलने लगे, तुम संन्यासी। कुछ और फर्क नहीं है। मन अगर अपने से नीचे की बात मानने लगे तो संसारी, मन अगर अपने ऊपर देखने लगे तो संन्यासी।
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