SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जगत का अपरतम संबंध : गुरु-शिष्य के बीच पांचवां प्रश्नः कभी आप कहते हैं, अकेलापन स्वभाव है; कभी आप कहते हैं, स्वतंत्रता स्वभाव है; कभी आप कहते हैं, प्रेम स्वभाव है। कभी आप कहते हैं, आनंद स्वभाव है। कृपा करके समझाएं। | मैं जो भी कहता हूं वह एक ही है, बहुत ढंग से कहता हूं। समझो! - जब मैं कहता हूं, अकेलापन स्वभाव है, तो मैं कह रहा हूं, यह मार्ग ध्यान का। अकेलापन यानी ध्यान। अकेले रह गए। असंबंधित। असंग। कोई दूसरे की धारणा न रखी। पर को भूल गए, परमात्मा को भी भूल गए, क्योंकि वह भी पर, वह भी दूसरा; अकेले रह गए, बिलकुल एकांत में रह गए। जैन, बौद्ध इस तरह चलते हैं। अकेले रह गए। इसलिए उनके मोक्ष का नाम कैवल्य है। बिलकुल अकेले रह गए। केवल चेतना मात्र बची। अकेलापन स्वभाव है। ____ जो अकेला हो गया, तो दूसरी बात उसमें से निकलेगी-स्वतंत्रता स्वभाव है। जब तुम अकेले रह गए तो तुम स्वतंत्र हो गए। अब तुम्हें कोई परतंत्रता न रही, क्योंकि कोई पर ही न रहा। दूसरे पर निर्भरता न रही। तुम मुक्त हो गए, तुम स्वतंत्र हो गए। तुम्हारा अपना स्वछंद तुम्हें उपलब्ध हो गया। तुम अपना गीत गुनगुनाने लगे। अब तुम उधार गीत नहीं गाते, अब तुम दूसरे की छाया की तरह नहीं डोलते, अब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, अब तुम अपने भीतर से, अपने केंद्र से अपने जीवन का रस बहाने लगे। तो स्वतंत्र हुए। फिर तीसरी बात मैं कहता हूं, प्रेम स्वभाव है। जो स्वतंत्र हो गया और अकेला हो गया, वही प्रेम देने में सफल हो पाता है। क्योंकि उसी के पास प्रेम देने को होता है। तुम तो प्रेम दोगे कैसे? तुम तो मांग रहे हो, दोगे कैसे? तुम तो चाहते हो, कोई तुम्हें दे दे, तुम्हारे पास ही होता तो तुम मांगते क्यों? तुम्हारे पास नहीं है, इसीलिए तो मांगते हो। हम वही तो मांगते हैं जो हमारे पास नहीं है। और जो स्वतंत्र हो गया, एकांत में डूब गया, अपनी मस्ती में खो गया, उसके पास प्रेम होगा। वह प्रेम बांटेगा। लेकिन उसका प्रेम तुम्हारे जैसा प्रेम नहीं होगा, वह देगा-बेशर्त। वह किसी को भी देगा, वह यह भी नहीं कहेगा, किसको दूं, किसको न दूं उसकी कोई सीमा न होगी। वह बांटेगा, वह उलीचेगा, जैसे एकांत में खिला हुआ फूल अपनी सुगंध को हवाओं में बिखेर देता है किसी को मिल जाए, ठीक, न मिले, ठीक। किसी के प्रयोजन से नहीं बिखेरता। सुगंध में किसी का पता नहीं लिखा होता कि फलाने के घर जाना है, कि मेरी प्रेयसी वहां रहती है, सुगंध, वहां जाना। कि मेरा प्रिय वहां रहता है, वहां जाना। बिखेर देता है, जिसको मिल जाए। फूल खिल गया, अब उसको क्या प्रयोजन। 117
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy