________________
जगत का अपरतम संबंध : गुरु-शिष्य के बीच
मेरे पास टिकिट हो ही नहीं। तो मैंने पूछा, फिर तुमने क्या किया, नसरुद्दीन ? तो उसने कहा, मैं क्या करता, मैं भी उसे ऐसे घूरने लगा जैसे सचमुच मेरे पास टिकिट हो। अब ऐसे अभ्यास चल रहे हैं। टिकिट चेकर तुम्हें घूर रहा है कि जैसे तुम्हारे पास टिकिट न हो। तुम ऐसे घूर रहे हो जैसे तुम्हारे पास टिकिट हो ।
झूठे अभ्यासों में मत पड़ो। यह बात पूछो ही मत । धन्यवाद निकलेगा उस अनुभव से सद्यःस्नात, अभी - अभी नहाया हुआ, ताजा, जैसे कोंपल फूटती नयी, जैसे सुबह सूरज ऊगता नया, ऐसा धन्यवाद ऊगेगा। और उस धन्यवाद की बात ही कुछ और है।
झेन फकीरों में, झेन परंपरा में इस तरह के विचार चलते हैं। हर शिष्य अपने ढंग से धन्यवाद देता है जब ज्ञान को उपलब्ध होता है। कभी-कभी तो बड़ी अजीब घटनाएं घट जाती हैं।
एक युवक बोकोजू अपने गुरु के पास वर्षों रहा, ध्यान की, समाधि की तलाश में। और जब भी वह कुछ खबर लेकर जाता कि बड़ा अनुभव हुआ है कि गुरु उसको एक चांटा रसीद कर देता। यह पहले तो बहुत चौंकता था, फिर समझने लगा । औरों से पूछा, बुजुर्गों से पूछा, जो पहले से ऐसे गुरु के चांटे खाते रहे थे उनसे पूछा, उन्होंने कहा कि उसकी बड़ी कृपा है, वह मारता ही तब है जब उसकी कृपा होती है किसी पर, नहीं तो वह मारता ही नहीं । फिजूल पर तो वह खर्चा ही क्यों करे, एक चांटा भी क्यों खर्च करे ! तुम पर उसकी बड़ी कृपा है। और वह मारता इसलिए है कि तुम जो भी ले जाते हो, वह अभी सच नहीं है, काल्पनिक है।
कभी वह पहुंच जाता कि बड़े प्रकाश का अनुभव हुआ गुरुदेव, और एक चांटा ! कि कुंडलिनी जग गयी गुरुदेव, और एक चांटा ! कि चक्र खुलने लगे, और एक चांटा ! वह जो भी अनुभव ले जाता और चांटा खाता ।
तब तो उसे भी समझ में आने लगा कि बात तो सब, यह सब तो काल्पनिक जाल ही है। जहां तक किसी चीज का अनुभव हो रहा है, वहां तक अनुभव हो ही नहीं रहा है। क्योंकि जो भी अनुभव हो रहा है, वह तुमसे अलग है। कुंडलिनी जगी, तो तुम तो देखने वाले हो, तुम तो कुंडलिनी नहीं हो। वह 'जो देख रहा है भीतर कि कुंडलिनी जग रही है, वह तो कुंडलिनी नहीं हो सकता न ! कुंडलिनी तो विषय हो गयी। जिसने देखा कि भीतर तीसरी आंख खुलने लगी, वह तो तीसरी आंख से भी उतना ही दूर हो गया जितना इन दो आंखों से दूर है। वह तीसरी आंख भी अलग हो गयी। जिसने देखा कि भीतर कमल खिलने लगा, वह देखने वाला तो कमल नहीं हो सकता न ! वह देखने वाला तो पार और पार और पार... उसका तो पता तब चलता है, जब न कमल खुलते, न प्रकाश होता, न कुंडलिनी जगती, न चक्र घूमते, कुछ भी नहीं होता है, सन्नाटा छा जाता है। अनुभव में कुछ आता ही नहीं, सिर्फ वही बच जाता है साक्षी, उस शून्य का साक्षी रह जाता है।
113