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जगत का अपरतम संबंध : गुरु-शिष्य के बीच
नहीं सकता। तुम जब अपने स्रोत में उतरते हो, तो यह तुम्हारा अनुभव है। ___ 'या किसी का इस उपाधि को स्वीकार करना।'
यह उपाधि ही नहीं है, स्वीकार-अस्वीकार का सवाल नहीं है। जब तुम जानोगे और पाओगे कि ऐसा है, तो फिर करोगे क्या! यही तो अलहिल्लाज मंसूर के साथ हुआ। जिस दिन मंसूर को बोध हुआ, उसने घोषणा कर दी–अनलहक। मैं परमात्मा हूं, मैं सत्य हूं, मैं ब्रह्म हूं।
जिन गुरु के पास मंसूर रहता था, गुरुं ने कहा, भीतर रख, भीतर रख, यह बात बाहर मत निकाल। सूफी यह सदा से जानते रहे हैं, मगर मुसलमानों के डर से कहते नहीं। गुरु ने कहा कि रख, भीतर रख, मुझे भी पता है, अब तुझे भी पता हो गया है, मगर बाहर मत कह, नहीं तो झंझट खड़ी होगी। झंझट खड़ी हुई। मंसूर ने कहा, जो भीतर है उसको बाहर क्यों न बहने दें? रुकावट कैसे डालं? और फिर मैं थोड़े ही कहता हूं, एक भावदशा आती है जब मेरे भीतर यह गुंजार उठता है, अनलहक। मेरे भीतर यह घोषणा उठती है कि मैं भगवान हूं। गुरु ने तो उसको विदा कर दिया। उन्होंने कहा, अगर यह घोषणा ही करनी है, तो तू कहीं और जा! कोई और गुरु चुन ले। किसी और गुरुकुल में रुक जा। यहां हम झंझट नहीं लेना चाहते।
दूसरे गुरु के पास भी यही हुआ, तीसरे गुरु के पास भी यही हुआ। चौथे गुरु के पास गुरु ने कहा कि हम तेरी तकलीफ समझते हैं, जब होती है यह घटना तो कभी-कभी ऐसा होता है, आदमी अपने वश में नहीं रह जाता, उदघोषणा होने लगती है, मगर इसे रोकना पड़ेगा, अन्यथा झंझट आएगी। तू इसे रोक, नहीं तो मैं तुझसे कहता हूं, तू फांसी पर चढ़ेगा। कहते हैं, मंसूर ने कहा, मैं उसी दिन फांसी पर चढूंगा जिस दिन तुम अपना यह सूफी अंगरखा उतार दोगे। उसके पहले नहीं चढूंगा। और कहानी कहती है कि दोनों की भविष्यवाणियां सच सिद्ध हुईं।।
खलीफा ने खबर भेजी गुरु के पास कि तुम्हारे आश्रम में एक आदमी है, जो कहता है मैं ईश्वर हूं, उसे निकाल बाहर कर दो, वह अपराध कर रहा है। लेकिन गुरु ने कोई खयाल नं दिया, बात चुपचाप रखे रहा। दुबारा खबर भेजी गयी, तीसरी बार खबर भेजी गयी। जब सातवीं बार खबर आयी तो साथ में पुलिस के आदमी भी आए, नंगी तलवारें भी आयीं। और उन्होंने कहा, अब तुम्हें दस्तखत करके देना होगा कि यह आदमी अपराधी है, और इसको फांसी लगेगी।
गुरु ने सोचा कि सूफी के कपड़े पहने हुए कैसे दस्तखत करूं, क्योंकि सूफी सभी जानते हैं इस बात को भीतर कि यह बात सच है, इसलिए अपना अंगरखा उतारकर फेंक दिया। उन सिपाहियों ने कहा, यह अंगरखा क्यों फेंक रहे हो? उन्होंने कहा, सूफी रहते हुए इस तरह की बात पर मैं दस्तखत नहीं कर सकता, यह अंगरखा मुझे उतार देने दो। और ठीक ही कहा था मंसूर ने कि यह अंगरखा तुम छोड़ोगे, उसी दिन मुझे फांसी लगेगी। अंगरखा उतारकर रख दिया और मौलवी के कपड़े पहन
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