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एस धम्मो सनंतनो
असली संत के करीब तो पहले तुम्हारी धारणाएं टूटेंगी। और अगर धारणाएं टूटने में तुम घबड़ाए न, परेशान न हुए-असली संत पहले तो तुम्हें मारेगा, अगर तुम मरने से न डरे, तो जरूर संतोष आएगा। और संतोष ऐसा कि फिर जाने वाला नहीं। __लेकिन एक ऐसा भी संतोष है जो तुम मान लेते हो। तुम जहां भी अपनी धारणा के अनुकूल किसी को देखते हो, तुम्हें संतोष मिलता है। क्या संतोष मिलता है ? कि मेरी धारणा ठीक है। देखो, यह आदमी सबूत है। अगर अपनी धारणा का मैं सबूत नहीं हूं, तो कम से कम यह आदमी सबूत है।
इसलिए तुम पूछते हो कि 'किसी व्यक्ति को भगवान की उपाधि देना!'
तुम्हारे प्रश्न में भी तुम्हारी धारणा छिपी है। भगवान कोई उपाधि नहीं है। भगवान कोई ऐसा नहीं है कि किसी को पद्मभूषण बना दिया, कि भारतरत्न बना दिया। भगवान कोई उपाधि नहीं है कि किसी विश्वविद्यालय की डिग्री है। और भगवान बनाना किसी के हाथ में नहीं है, भगवान होना हमारा स्वभाव है। यह उपाधि नहीं है। उपाधि तो बीमारी का नाम है। उपाधि के तो दो अर्थ होते हैं-डिग्री और बीमारी भी। भगवान कोई उपाधि नहीं है। भगवान तो अपने स्वभाव को पहचान लेना है। जब तुम अपने भीतर झांकते हो और पहचान लेते हो, कौन वहां विराजमान है, तब तुम पाओगे कि भगवान हो। ____ भगवत्ता हमारा सामान्य धर्म है। जैसे आग का धर्म जलाना, ऐसा आदमी का धर्म भगवान। और जब आदमी में तुम्हें भगवान दिखेगा, तो धीरे-धीरे तुम्हारी आंख
और गहरी जाएगी, पशु-पक्षियों में भी दिखेगा। फिर और आंख गहरी जाएगी और पौधों में भी दिखेगा, फिर और आंख गहरी जाएगी और चट्टानों में भी दिखेगा। और जिस दिन तुम्हें सब जगह दिखायी पड़ना शुरू हो जाए, कोई ऐसी जगह न रहे जहां भगवान न हो, तभी जानना कि तुम घर वापस लौटे।
नानक मक्का गए तो सो गए रात पैर करके पवित्र मंदिर की तरफ। पुरोहित नाराज हुए। उन्होंने आकर कहा कि तुम्हें पैर पवित्र मंदिर की तरफ करके सोते लाज नहीं आती और लोग कहते हैं तुम संत हो! यह क्या संत हुए तुम! तुम्हें इतना भी पता नहीं है कि कहां पैर करने! तो कथा बड़ी प्यारी है, कथा कहती है कि नानक ने कहा, मेरे पैर उस जगह कर दो जहां भगवान न हो। तब जरा मुश्किल हो गयी होगी! पुजारियों ने, कहते हैं, जहां भी नानक के पैर किए, पाया कि काबा उसी तरफ घूम गया। ऐसा काबा घूमा हो, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। काबा घूमा हो, इसकी कोई जरूरत भी नहीं है। काबा के घूमने की जरूरत नहीं है, क्योंकि काबा सब तरफ है ही। इतना ही अर्थ है कहानी में-कहां करोगे पैर? जहां पैर करोगे, वहीं भगवान है। सब ओर भगवान है। .
तो पहली तो बात तुम पूछते हो, 'किसी व्यक्ति को भगवान की उपाधि देना।' उपाधि दी तो बात गलत हो गयी, यह उपाधि नहीं है। और कोई किसी को दे
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