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________________ जगत का अपरतम संबंध : गुरु-शिष्य के बीच लोगे। तुम्हें संतोष इसलिए नहीं मिल रहा है कि संत की वाणी में कुछ सार है, तुम्हें संतोष इसलिए मिल रहा है कि तुम्हारा अहंकार तृप्त हो रहा है कि देखो, मेरी धारणा संत की कितनी सही है। यह प्रमाण मिल गया। यह आदमी प्रमाण है मेरे संतत्व की धारणा का। तुम अपनी ही धारणा के चरणों में सिर झुका रहे हो। ___मैं एक घर में मेहमान था, एक जैन घर में। एक बूढ़े सज्जन मुझे मिलने आए, उम्र होगी कोई अस्सी साल की। कोई चालीस साल से त्यागी का जीवन ही बिताते थे, यद्यपि घर में ही थे। लेकिन न दुकान जाते, न घर-द्वार की बात करते, ज्यादातर सामायिक, ध्यान, उपवास, इसमें ही समय लगाते थे। मैं गांव में आया हूं तो मुझे मिलने आए-अपने घर के बाहर भी नहीं जाते थे। उनके साथ दस-पांच लोगों का गिरोह भी आया यह देखने कि वह कभी अपने घर के बाहर जाते नहीं, किस के दर्शन को जा रहे हैं? उन्होंने मेरी एक किताब पढ़ी थी-साधना पथ-और उससे वे बहुत प्रभावित थे। वे आकर मेरे चरणों में झुके और उन्होंने कहा कि आप तो मेरे लिए तीर्थंकर हैं। आपने जो किताब लिख दी, उससे मुझे जो मिला है, वह किसी चीज से नहीं मिला। मेरा सारा जीवन उसने बदल डाला है। ऐसे उनसे बातें हो रही थीं, तभी घर की गृहिणी ने आकर मुझे कहा कि अब आप भोजन कर लें, सांझ हो गयी है। तो मैंने उनसे कहा कि यह वृद्ध सज्जन आए हैं, अभी बीच में बाधा न डालो, थोड़ी देर बाद भोजन कर लंगा। वे वृद्ध सज्जन तो बहुत चौंके, उन्होंने कहा, क्या? सूरज ढला जा रहा है, सूरज ढलने के बाद भोजन करेंगे। मैंने कहा, आप इतनी दूर से चलकर आए, बूढ़े हैं, आपके पास बैठना ज्यादा आनंदपूर्ण है, भोजन तो घड़ीभर बाद हो जाएगा। उन्होंने कहा, आप समझे नहीं। वह उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, जिस आदमी को अभी यही पता नहीं कि रात्रि-भोजन पाप है, उसको और क्या पता हो सकता है! __ आए थे तो मेरे चरण छुए थे, जाते वक्त मुझे उपदेश देकर गए कि कम से कम इतना तो करो कि रात्रि-भोजन छोड़ दो। अब मैं निश्चित जानता हं. घर जाकर उन्होंने किताब जला दी होगी या फेंक दी होगी। किसी को दी होगी, यह भी मैं नहीं मान सकता। क्योंकि ऐसे भ्रष्ट आदमी की किताब किसी को देकर क्या भ्रष्ट करना है! आए थे तो मैं तीर्थंकर था। तीर्थंकर के गिरने में देर कितनी लगती है! तुम तीर्थंकर को इतनी स्वतंत्रता भी तो नहीं दे सकते कि वह सूरज ढलने के बाद भोजन कर ले। तुम्हारा तीर्थंकर तुम्हारा गुलाम, तुम्हारा संत तुम्हारा गुलाम। तो गुलाम ही तुम्हारे संत हो सकते हैं। जो अपने मालिक हैं, शायद उनसे तो तुम्हें संतोष नहीं मिलेगा। जो अपने मालिक हैं, वे तो तुम्हें झकझोर देंगे। वे तो आएंगे एक तूफान की तरह, एक आंधी की तरह और तुम्हें उखाड़ देंगे, तुम्हारी सारी धारणाओं को उखाड़ देंगे। वे तो आएंगे एक झंझावात की तरह और तुम्हारे बनाए हुए सारे भवनों को गिरा देंगे, तुम्हारा सारा तत्वज्ञान धूल-धूसरित हो जाएगा।
SR No.002385
Book TitleDhammapada 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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