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एस धम्मो सनंतनो
आत्मा नहीं है। तो असंतों की वाणी से सुगंध तो मिलनी कठिन है, दुर्गंध ही मिलेगी। संतों की वाणी से संतोष मिलेगा, क्योंकि संतोष सत्य की छाया है।
यह तो बात ठीक। लेकिन एक बात याद रखना, जिनकी वाणी से संतोष मिल जाए, जरूरी नहीं कि वे संत ही हों। और जिनकी वाणी से तुम्हें संतोष न मिले, जरूरी नहीं कि वे असंत ही हों।
जहां तक संतों की तरफ से संबंध है, संतों की वाणी से संतोष मिलना चाहिए। जहां तक असंतों का संबंध है, असंतों की वाणी से संतोष नहीं मिलंना चाहिए। लेकिन जो मिलता है, उसमें अकेला संत थोड़े ही भागीदार है, तुम भी भागीदार हो। वर्षा होती हो और घड़ा उलटा रखा हो तो गैर-भरा रह जाएगा। तो संत की भी वाणी से हो सकता है संतोष न मिले, अगर तुम उसे ग्रहण ही न करो; अगर तुम उसे भीतर ही न जाने दो; या तुम्हारे पूर्व-पक्षपात, तुम्हारी पहले की बनायी धारणाएं रुकावट बन जाएं।
तो ऐसा समझो कि जरूरी नहीं है कि संत की वाणी से संतोष मिले ही, तुम लोगे तो ही मिलेगा। और दूसरी बात भी संभव है, असंत की वाणी से भी संतोष मिल जाए, अगर तुमने लेने की ही जिद्द कर रखी है। तो जहां कुछ भी नहीं है वहां भी तुम कुछ देख लोगे। क्योंकि इस लेन-देन में दो व्यक्ति सम्मिलित हैं, एक देने वाला और एक लेने वाला, इसलिए लेन-देन की यह घटना दोनों पर निर्भर होगी।
__ जैसे, अगर कोई जैन किसी सूफी फकीर की वाणी पढ़े, उसे संतोष नहीं मिलेगा। क्योंकि वह यह मान ही नहीं सकता कि मांसाहारी और ज्ञान को उपलब्ध हो जाए। यह बात ही संभव नहीं है। सूफी संत की तो छोड़ दो, एक जैन मुनि ने मुझसे कहा कि आप रामकृष्ण परमहंसदेव का उल्लेख करते हैं, आपको पता है, वे मछली खाते थे? तो मछली खाने वाला आदमी कैसे संत हो सकता है! अब इन जैन मुनि को रामकृष्ण की वाणी से संतोष नहीं मिलेगा। इससे यह मत समझ लेना कि जहां से संतोष नहीं मिलता वहां संत नहीं है।
बौद्धों को जैनों की वाणी में संतोष नहीं है। हिंदुओं को मुसलमानों की वाणी में संतोष नहीं है। मुसलमानों को ईसाइयों की वाणी में संतोष नहीं है। तो इसका क्या अर्थ हुआ है ? इसका अर्थ हुआ कि संतत्व की भी तुम्हारी धारणा है। उस धारणा के अनुकूल संत पड़ता हो तो तुम संतोष लोगे। उसके अनुकूल न पड़ता हो तो तुम्हें जरा भी संतोष न मिलेगा। फिर कभी यह भी हो सकता है कि असंत तुम्हारी धारणा के अनुकूल पड़ता हो। __ मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन भूखा-प्यासा एक गांव में आया। गांव में एक भी मुसलमान नहीं था। गांव शाकाहारियों का था और गांव का जो साधुपुरुष था, उसने सारा जीवन शाकाहार की ही सेवा में लगाया था। बस मांसाहार के ही विपरीत उसका सारा जीवन समर्पित था।
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