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आदमी अकेला है
जिसको हम आत्मा कहते हैं, वह भाप है। ये चैतन्य की दो दशाएं हैं। जिसको हम मन कहते हैं, चित्त कहते हैं, वह पानी है-वह नीचे की तरफ जाता है, वह अधोगामी है। और जिसको हम आत्मा कहते हैं, वह यही पानी है जो तपश्चर्या से, तप से भाप बन गया, वाष्पीभूत हो गया, उड़ने लगा ऊपर की तरफ, पंख मिल गए जिसे—तो ऊर्ध्वगामी।
नीचे चलो तो संसार है, ऊपर चलो तो परमात्मा है।
छंदजातो अनक्खातो...।
इस अव्याख्य में जिसको रस आ गया, जो नाचने लगा मग्न होकर, वह फिर नहीं लौटता। जो मयूर हो गया, फिर नहीं लौटता।
खिड़की से उड़ आयी गंध साथ लिए रस-भीगे छंद भीत टंगे पुष्पों के चित्र बिखराते लगते मकरंद किसी नयी कविता की पंक्ति अधरों पर हो उठी अधीर
परस गयी फागुनी समीर जैसे फागुन आता है न, फूल खिल जाते हैं न, गंध तैरती, ऐसा ही एक भीतर का फागुन भी है। खुले खिड़की भीतर की।
खिड़की से उड़ आयी गंध साथ लिए रस-भीगे छंद भीत टंगे पुष्पों के चित्र बिखराते लगते मकरंद किसी नयी कविता की पंक्ति अधरों पर हो उठी अधीर परस गयी फागुनी समीर टेसू लहके पुरवा मारे रंग भरी पिचकारी ढोल-मृदंग मजीरे चढ़ते स्वर की नयी अटारी एक बरस के बाद आज मन सुगना बहका रे एक बरस के बाद आज