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एस धम्मो सनंतनो
समर्थ है। जो अभी स्वयं ही नहीं है, उसका समर्पण क्या?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम सब समर्पण करते हैं। मैं कहता हूं, मुझे पता भी तो चले, सब है क्या जो तुम समर्पण करते हो। नहीं, वे कहते हैं, अपना ही समर्पण करते हैं। मैं पूछता हूं, तुम हो कहां? क्या लाए हो? खाली हाथ! तुम किस भ्रम में पड़े हो? समर्पण के पहले कुछ होना तो चाहिए। और अगर कुछ भी नहीं है, तो समर्पण कौन करेगा? यह समर्पण तो फिर नपुंसक आवाज है। इसका कोई मूल्य नहीं है। संकल्पवान ही समर्पण कर सकता है।
तुम्हें विरोधाभास लगते हैं। तुम कहते हो, संकल्पवान! संकल्पवान ही समर्पण कर सकता है। जिसके पास कुछ है, वही निवेदन कर सकता है। जिसके पास है, वही चढ़ा सकता है।
व्यक्ति को जगाना होगा। व्यक्ति को उठाना होगा। व्यक्ति को उसकी परम गरिमा तक पहुंचाना होगा। तभी वह इस योग्य बनता है कि परमात्मा के चरणों में समर्पित हो सके। समष्टि में अपने को खो सके। बूंद को महिमा दो, बूंद को निखारो, ताकि बूंद सागर हो, सागर हो सके। बूंद को इतनी महिमा दो कि बूंद अपने सिकुड़ेपन को छोड़ने को राजी हो जाए, सागर बनने को राजी हो जाए। और हर चीज चाहे व्यक्ति हो, चाहे समष्टि हो; चाहे आत्मा हो, चाहे परमात्मा हो; सब अपनी-अपनी जगह बड़े सुंदर हैं। क्योंकि एक का ही खेल है। ऐसा समझो
फैला तो बदर और घटा तो हिलाल था
जो नक्श था अपनी जगह बेमिसाल था पहले दिन का चांद और पूर्णिमा का चांद, कौन सुंदर है? पहले दिन का चांद कि पूर्णिमा का चांद?
__फैला तो बदर बड़ा होता गया तो पूर्णिमा का चांद बन जाता है।
और घटा तो हिलाल था और छोटा होता गया तो फिर पहले दिन का चांद बन जाता है।
जो नक्श था अपनी जगह बेमिसाल था लेकिन तुलना का कोई अर्थ नहीं है। पहले दिन का चांद भी बेमिसाल है, पूर्णिमा का चांद भी बेमिसाल है। ___ सुना है, ईरान के बादशाह ने अपने एक वजीर को भारत भेजा। ईरान और भारत में बड़ा विरोध था। वजीर को भेजा था कि कुछ सुलझाव हो जाए। वजीर आया, उसने भारत के सम्राट को कहा कि आप पूर्णिमा के चांद हैं। सम्राट बहुत प्रसन्न हुआ। उन्होंने कहा कि और तुम अपने बादशाह को क्या कहते हो? उसने कहा, वे दूज के चांद हैं। आप पूर्णिमा के चांद हैं। बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ। उसके वजीर भी बहुत प्रसन्न हुए। इस वजीर को उन्होंने बहुत धन-दौलत दी, इसे विदा किया.