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परमात्मा अपनी ओर आने का ही ढंग
बड़ी मैत्री का संबंध हो गया। अपने सम्राट को कहता है दूज का चांद, भारत के सम्राट को कहता है पूर्णिमा का चांद! ___ जब यह वापस लौटा तो इसके दुश्मनों ने खबर पहुंचा दी ईरान। ईरान का बादशाह नाराज हुआ। दरबार की राजनीति। लोगों ने उलझा रखा है उसको कि इसने अपमान किया है, यह जालसाजी करके आ रहा है। आपको दूज का चांद बताया, यह तो हार की बात हो गयी, यह तो अपमान हो गया। और भारत के सम्राट को पूर्णिमा का चांद बताया।
जब वजीर पहुंचा, तो नंगी तलवारों में घेर लिया गया। वहां फांसी तैयार थी। वजीर ने कहा, इसके पहले कि मैं मरूं, क्या मैं पूछ सकता हूं कि कारण क्या है? सम्राट ने कहा, अपमान हुआ है। तुम्हें हमने भेजा था समझौता करने, पराजित होने नहीं। खुशामद करने नहीं। अगर इस कीमत पर हल होना था मामला, तो लड़ ही लेना बेहतर था। तुमने पूर्णिमा का चांद कहा सम्राट को, मुझे दूज का चांद बताया! वह वजीर हंसने लगा। उसने कहा, निश्चित ही। क्योंकि दूज के चांद की बढ़ने की संभावना है। पूर्णिमा का चांद तो अब मरने के करीब है। दूज का चांद बढ़ेगा, बड़ा होगा, फैलेगा; पूर्णिमा का चांद तो अब सिकुड़ेगा, ढलेगा। मैंने तुम्हारे सम्मान में ही बात कही है।
कौन बड़ा है? दूज का चांद? पूर्णिमा का चांद? बात ही गलत है। यह सवाल ही गलत है बड़े-छोटे का। क्योंकि पूर्णिमा का चांद और दूज का चांद, दो चांद नहीं हैं। तुलना व्यर्थ है। दूज का चांद ही पूर्णिमा का चांद हो जाता है। पूर्णिमा का चांद ही दूज का चांद बन जाता है। एक ही वर्तुल की यात्राएं हैं।
व्यक्ति ही समष्टि हो जाता है। समष्टि ही व्यक्ति बनती रहती है। आत्मा में परमात्मा डूबता रहता है, आत्मा परमात्मा में डूबती रहती है।
तुम दूज के चांद हो, बढ़ते हो परमात्मा की तरफ। और परमात्मा छितर-छितर कर फिर दूज का चांद बनता जाता है। इसलिए विरोधाभास मत देखो। विरोधाभास है भी नहीं।
फैला तो बदर और घटा तो हिलाल था जो नक्श था अपनी जगह बेमिसाल था
आज इतना ही।