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________________ परमात्मा अपनी ओर आने का ही ढंग __ आकुल-व्याकुल है मेरा मन न कहीं पहुंचना है, न कोई जल्दी है। इसलिए न कोई आकुलता, न कोई व्याकुलता, कोई आपाधापी नहीं। खड़ा विश्व के चौराहे पर अपने में ही सहज लीन हूं तब तुम विश्व के चौराहे पर खड़े-खड़े भी निर्वाण में लीन हो जाते हो। तब बाजार में खड़े-खड़े मोक्ष पास आ जाता है। मुक्त-दृष्टि निरुपाधि निरंजन मैं विमग्ध भी उदासीन हैं। __तब तुम विमुग्ध भी दिखायी पड़ते हो, उदासीन भी। तुम्हारे भीतर अतियां मिल जाती हैं। तुम बाहर भी होते हो, भीतर भी। तुम्हारे भीतर अतियां मिल जाती हैं। तो मेरी बात को ठीक से समझना। अन्यथा तुम सोचो कि कोई लक्ष्य बनाना है, कुछ होकर रहना है, कुछ दुनिया को करके दिखलाना है, नाम छोड़ जाना है इतिहास में ये पागलपन की बातें मैं नहीं कर रहा हूं। तुम जिसे इतिहास कहते हो, वह पागलों की कथा है। जिसने भीतर की कोई बात खोज ली, उसने ही कुछ खोजा है। बाहर की दौड़-धूप बच्चों के खेल-खिलौने हैं। आखिरी प्रश्नः कभी आप कहते हैं, व्यक्ति नहीं समष्टि ही है। कभी कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति अनूठा, अद्वितीय है; और यह कि प्रत्येक की नियति अलग है। कृपा कर इस विरोधाभास को दूर करें। वि रो धा भास हो तो दूर करें। विरोधाभास नहीं है। तुम्हें दिखायी पड़ता है। तुम अपनी दृष्टि को थोड़ा प्रखर करो, पैना करो। तेरा तो तब एतबार कीजे जब होवे कुछ एतबार अपना परमात्मा पर भरोसा तुम करोगे कैसे, अगर अपने पर ही भरोसा न हो? करेगा कौन भरोसा? तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है, तुम परमात्मा पर कैसे भरोसा करोगे? तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है, तो तुम्हें अपने भरोसे पर कैसे भरोसा होगा? तेरा तो तब एतबार कीजे जब होवे कुछ एतबार अपना सब जुड़ा है। जो व्यक्ति होने में समर्थ है, वही समष्टि के प्रति समर्पित होने में 51
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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