________________
एस धम्मो सनंतनो
कहीं पहुंचने की न त्वरा में आकुल-व्याकुल है मेरा मन खड़ा विश्व के चौराहे पर अपने में ही सहज लीन हूं मुक्त - दृष्टि निरुपाधि निरंजन मैं विमुग्ध भी उदासीन हूं
तुम फिक्र छोड़ो बाहर की । बाहर की दिशाएं, गंतव्य, लक्ष्य, उनकी मैंने बात ही नहीं की है। मैं चाहता हूं कि तुम
खड़ा विश्व के चौराहे पर
अपने में ही सहज लीन हूं
तब अगर बाहर के जीवन में बहुत आपाधापी न हो, तो सौभाग्य !
यह मेरा सौभाग्य कि अब तक
मैं जीवन में लक्ष्यहीन हूं
क्योंकि जिनके जीवन में बाहर लक्ष्य हैं, वे भीतर जाने में बड़ी मुश्किल पाते हैं। बाहर के लक्ष्य पूरे नहीं होते । जीवन छोटा होता है, बाहर के लक्ष्य पूरे नहीं होते । भीतर जाएं कैसे! महल बनाना था, नहीं बन पाया अभी । भीतर जाएं कैसे ! तिजोड़ियां भरनी थीं, अभी खाली हैं, भीतर जाएं कैसे! पहले सब बाहर तो पूरा कर लें। बाहर का कभी कोई पूरा कर पाया है ? कोई सिकंदर भी कभी बाहर का पूरा नहीं कर पाता। साम्राज्य बाहर का अधूरा ही रहता है। बाहर के साम्राज्य का स्वभाव अधूरा होना है। वह पूरा होता ही नहीं, पूरा होना उसका स्वभाव नहीं।
यह मेरा सौभाग्य कि अब तक
50
मैं जीवन में लक्ष्यहीन हूं
बाहर कोई लक्ष्य ही नहीं है, तो भीतर जाने की बड़ी स्वतंत्रता है।
मेरा भूत-भविष्य न कोई
वर्तमान में चिर नवीन हूं
न कोई भूत है, न अतीत की कोई संपदा है हाथ में, जिसको सम्हालूं । न कोई भविष्य की बड़ी योजना है, जिसके पीछे चिंतित, व्यथित, परेशान रहूं।
कोई निश्चित दिशा नहीं है
मेरी चंचल गति का बंधन
और कोई ऐसी दिशा भी नहीं है, जो मुझे पकड़े हो ।
तो भीतर जाना संभव है। ग्यारह दिशाएं हैं। दस दिशाएं बाहर हैं, ग्यारहवीं दिशा भीतर है। जब दस दिशाओं में तुम्हारा कोई बंधन नहीं होता, तब तुम्हारी ऊर्जा ग्यारहवीं दिशा में अपने आप समाविष्ट होने लगती है।
कहीं पहुंचने की न त्वरा में