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________________ परमात्मा अपनी ओर आने का ही ढंग क्या है ? उसने कहा, गुरु ठीक ही कहते हैं । यह किस नासमझ ने लिखा ? वे चारों चौंके। उन्होंने कहा, तू बारह साल से चावल ही कूटता रहा, तू भी ज्ञानी हो गया ! हम शास्त्रों से सिर ठोंक-ठोंककर मर गए। तो तू लिख सकता है इससे बेहतर कोई वचन? उसने कहा, लिखना तो मैं भूल गया, बोल सकता हूं, कोई लिख दे जाकर। लेकिन एक बात खयाल रहे, उत्तराधिकारी होने की मेरी कोई आकांक्षा नहीं । यह शर्त बता देना कि वचन तो मैं बोल देता हूं, कोई लिख भी दे जाकर - मैं तो लिखूंगा नहीं, क्योंकि मैं भूल गया, बारह साल हो गए कुछ लिखा नहीं — उत्तराधिकारी मुझे होना नहीं है। अगर इस लिखने की वजह से उत्तराधिकारी होना पड़े, तो मैंने कान पकड़े, मुझे लिखवाना भी नहीं। पर उन्होंने कहा, बोल ! हम लिख देते हैं जाकर । उसने लिखवाया कि लिख दो जाकर - कैसा दर्पण ? कैसी धूल ? न कोई दर्पण है, न कोई धूल है, जो इसे जान लेता है, धर्म को उपलब्ध हो जाता है। - 1 आधी रात गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि अब तू यहां से भाग जा । अन्यथा ये पांच सौ तुझे मार डालेंगे। यह मेरा चोगा ले, तू मेरा उत्तराधिकारी बनना चाहे या न बनना चाहे, इससे कोई सवाल नहीं, तू मेरा उत्तराधिकारी है। मगर अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये बर्दाश्त न करेंगे कि चावल कूटने वाला और सत्य को उपलब्ध हो गया, और ये सिर कूट-कूटकर मर गए। जीवन में कुछ होने की चेष्टा तुम्हें और भी दुर्घटना में ले जाएगी। तुम चावल ही कूटते रहना, कोई हर्जा नहीं है । कोई भी सरल सी क्रिया, काफी है। असली सवाल भीतर जाने का है। अपने जीवन को ऐसा जमा लो कि बाहर ज्यादा उलझाव न रहे। थोड़ा-बहुत काम है जरूरी है, कर दिया, फिर भीतर सरक गए। भीतर सरकना तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा रस भरा हो जाए। बस, जल्दी ही तुम पाओगे दुर्घटना समाप्त हो गयी, अपने को पहचानना शुरू हो गया। अपने से मुलाकात होने लगी। अपने आमने-सामने पड़ने लगे। अपनी झलक मिलने लगी । कमल खिलने लगेंगे। बीज अंकुरित होगा। तुम्हारी नियति, तुम्हारा भाग्य, करीब आ जाएगा। लेकिन मेरी बात को गलत मत समझ लेना । मैंने यह नहीं कहा है कि तुम कुछ करने में समर्थ हो जाओ; मैंने कहा है, तुम कुछ होने में समर्थ हो जाओ । होना । करना नहीं। करना तो बाहर की भाषा है, होना भीतर की भाषा है । और अगर ऐसी तुम्हारी समझ में बात बैठ जाए तो हर घड़ी का उपयोग है। यह मेरा सौभाग्य कि अब तक . मैं जीवन में लक्ष्यहीन हूं मेरा भूत-भविष्य न कोई वर्तमान में चिर नवीन हूं कोई निश्चित दिशा नहीं है मेरी चंचल गति का बंधन 49
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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