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________________ परमात्मा अपनी ओर आने का ही ढंग मनोवैज्ञानिकों ने बहत से प्रयोग किए हैं। एकांत में रख देते हैं व्यक्ति को बीस दिन के लिए, सारी सुविधा जुटा देते हैं। जब भोजन चाहिए, थाली आ जाती है। स्नान चाहिए, स्नान हो जाता है। बिस्तर पर जाना है, बिस्तर हो जाता है। कोई तकलीफ नहीं। लेकिन बीस दिन में...खोपड़ी से तार जुड़े रहते हैं, जो खबरें देते रहते हैं कि कब आदमी क्रोधित हो रहा है, कब नहीं हो रहा है। वह क्रोधित होता है फिर भी। अब तो कोई कारण नहीं है, न कोई बिगाड़ कर रहा है, न किसी का पता है उसे, लेकिन फिर भी क्रोध की घड़ी आती है। उत्तप्त हो जाता है, भीतर आग जलने लगती है, बेतहाशा क्रोध होने की आकांक्षा पैदा होती है। ऐसा समझो, कामवासना तुममें है, उसी तरह क्रोध की वासना भी तुममें है। लोभ की वासना भी तुममें है। जो व्यक्ति गौर से चिंतन करेगा, ध्यान करेगा, वह पाएगा कि सब भीतर है, बाहर तो बहाने हैं। इसलिए बहानों पर जिम्मेवारी मत डालो। अपने ही भीतर चलो, विश्लेषण करो, गहरे उतरो-और जब क्रोध हो तभी उतरो। क्रोध जा चुका, फिर उतरने का कोई सार नहीं। आग बुझ गयी, फिर राख को टटोलने से कुछ भी न होगा। __अक्सर हम राख को टटोलते हैं। क्रोध तो जा चुका, फिर बैठे पछता रहे हैं। राख को रखे बैठे हैं। जब क्रोध जलता हो, भभकता हो, तब द्वार-दरवाजे बंद कर लो, यह अवसर मत छोड़ो। यह ध्यान का बड़ा बहुमूल्य क्षण है। इस क्रोध को ठीक से देखो। इसे पूरा उभारो। तकिए रख लो चारों तरफ, मारो, पीटो, चीखो, चिल्लाओ; सब तरह से अपने को उद्विग्न कर लो। जितनी विक्षिप्तता तुममें भरी हो, बाहर ले आओ, ताकि पूरा-पूरा दर्शन हो सके। आईना सामने रख लो, उसमें अपने चेहरे को भी बीच-बीच में देखते जाओ, क्या हो रहा है? आंखें कैसी लाल हो गयी हैं? चेहरा कैसा वीभत्स हो गया है? तुम कैसे क्रोधित हो गए हो? राक्षसों की तुमने कल्पना सुनी थी, कहानी पढ़ी थी, वह सामने खड़ा है। उसे पूरा का पूरा देख लो। __ और जरा भी भीतर दबाओ मत। क्योंकि दबाना ही रोग है। दबाने के कारण ही हम परिचित नहीं हो पाते। प्रगट करो। किसी पर प्रगट कर भी नहीं रहे हो, तकियों को मार रहे हो। तकिया तो बुद्धपुरुष है, उनको कोई...वे तुम पर नाराज भी न होंगे, बदला भी न लेंगे। तुम उनसे क्षमा भी न मांगोगे, तो भी कोई चिंता न करेंगे। लेकिन घड़ीभर को तुम अपने को जितना जला सको जला लो। अपने जलते हए रूप को देखो। अपने को बिलकुल चिता पर चढ़ा दो क्रोध की। रत्तीभर दबाओ मत। क्योंकि जितना दबा रह जाता है, उतना ही अपरिचित रह जाता है। और एक बार भी अगर तुमने क्रोध की पूरी भभक देख ली, तो पश्चात्ताप न करना पड़ेगा और न व्रत लेना पड़ेगा कि अब क्रोध न करूंगा। तुम क्रोध कर ही न सकोगे। . तो क्षण बुद्धत्व का हो गया। तो यह क्षण में जो संपदा तुम्हारे पास आएगी, सदा तुम्हारे पास रहेगी। इसे पकड़ना न पड़ेगा। खयाल रखो-रेचन, दमन नहीं। 41
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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