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________________ मो सनंतनो हैं। यह तभी संभव है जब तम दोनों किनारों को ठीक-ठीक परिचय कर लो, ५९...न लो, संबंध हो जाए और दोनों किनारों से तुम्हारा नाता बन जाए। एक किनारे पर बस गए, तो दूसरा अजनबी मालूम होने लगता है। फिर दूसरा पराया मालूम होने लगता है। दूसरा दुश्मन मालूम होने लगता है। इसलिए तुम्हें एक किनारे पर जमने नहीं देता। मेरा बोलना तुम्हें एक किनारे पर बसाने के लिए नहीं है; मेरा बोलना ऐसा है जैसे कोई मांझी तुम्हें एक किनारे से दूसरे किनारे ले चलता हो। तुम्हें उतरने भी नहीं देता। तुम्हें दर्शन हो गया दूसरे किनारे का, नाव मोड़ देता हूं। चलो फिर! धीरे-धीरे...कितनी देर तक तुम देर करोगे? कितना विलंब करोगे? कभी तो तुम्हें दिखायी पड़ेगा-गंगा एक है, किनारे दो हैं। दोनों किनारे जरूरी हैं। गंगा बह न सकेगी एक किनारे के सहारे। दोनों किनारे जरूरी हैं और दोनों किनारे गंगा के नीचे मिले हैं। एक ही भूमि के हिस्से हैं। दोनों ने गंगा को । सम्हाला है। एक पंख के साथ, कहो कब विहग उड़ सका भला गगन में? दूसरा प्रश्नः जिंदगी के रोज-रोज के अनुभव सभी को क्षणभर के लिए बुद्ध बना देते हैं। पर फिर भी बुद्धत्व जन्मों-जन्मों तक क्यों रुकता चला जाता है, कृपा कर समझाएं। क्षण का अनुभव क्षण का ही अनुभव है, तुम्हारा नहीं। क्रोध होता है, क्षणभर को तुम्हें भी उसकी तिक्तता, कड़वापन मालूम होता है, क्षणभर को तुम भी विषाद से, संताप से भर जाते हो। क्षणभर को ऐसा लगता है, बस हो गया, आखिरी। अब कभी नहीं, अब कभी नहीं। प्रतिज्ञा उठती है, व्रत का जन्म होता है। लेकिन ऐसा तुम बहुत बार कर चुके हो। यह बुद्धि बहुत बार आयी है और छिन गयी है। इस बुद्धि पर भरोसा मत करो। यह तो केवल क्षण का आघात है, समझ नहीं। यह तो क्षण की पीड़ा है, बोध नहीं। यह तो क्रोध के कारण उठा हुआ जो तुम्हारे मन में पीड़ा-पश्चात्ताप का धुआं है, उसके कारण तुम कह रहे हो। क्रोध को जानकर तुमने नहीं कहा है, क्रोध को पहचान कर नहीं कहा है। यह क्रोध अभी भी उतना ही अपरिचित है जितना पहले था। आ गया है, तुमने दुख भोग लिया; कांटा चुभ गया, कांटा चुभ जाने से तुमने कांटे को पहचान लिया ऐसा नहीं है। कांटा चुभ गया, तुम तय करते हो कि अब कभी कांटे से न चुभेंगे। लेकिन तुम्हें याद है, 38
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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