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________________ परमात्मा अपनी ओर आने का ही ढंग कीमती नहीं हो सकता। कीमत ही माया चुकायी है। उससे ज्यादा कीमती हो भी कैसे सकता है! माया चुकाकर ही पाया है; तो माया के ही मूल्य का होगा । शंकर को भी अड़चन है, माया को कहां रखें ? है तो नहीं, फिर भी है। इसे समझाएं कैसे? इतना साहस नहीं जुटा सके कि कह सकें, यह परमात्मा की अभिव्यक्ति है। क्योंकि तब डर लगा, अगर परमात्मा की अभिव्यक्ति है तो फिर दुकानों से उठाकर लोगों को मंदिरों में कैसे पहुंचाओगे? वे कहेंगे, यह परमात्मा प्रगट हो रहा है दुकान में। फिर लोगों को पत्नियों से छुड़ाकर ब्रह्मचर्य में कैसे लगाओगे ? क्योंकि वे कहेंगे कि अगर परमात्मा की अभिव्यक्ति है माया, तो पत्नी भी उसी की, बच्चे भी उसी के, परिवार भी उसी का। अगर परमात्मा भी बिना माया के नहीं, तो हम कैसे बिना माया के हो सकते हैं! तो शंकर को अड़चन हो गयी है । वे तर्कनिष्ठ आदमी हैं। आधा मस्तिष्क ! विचार, तर्क, गणित वाला मस्तिष्क है। बड़ा कुशल तार्किक मस्तिष्क है। इसलिए बड़ी अड़चन है। आधे मस्तिष्क को क्या करोगे? तो तर्क, विचार, गणित से जो ठीक बैठता है, वह ब्रह्म । जो गणित, तर्क से ठीक नहीं बैठता, वह माया। इसलिए तुम चकित होओगे, भक्त जिसको भगवान कहते हैं, शंकर ने उनको भी माया के अंतर्गत रखा है। भक्तों का भगवान तो माया है। रो रहे हो ! भजनकीर्तन कर रहे हो! यह तो तुम्हारे ही राग का फैलाव है । शंकर का ब्रह्म भक्त के भगवान के ऊपर है। पार, जहां भगवान भी छूट गया। यह शंकर का ब्रह्म पुरुष के मस्तिष्क की ईजाद है। यह नारद का भगवान स्त्री-मस्तिष्क की ईजाद है। मैं तुमसे एक बड़ी अनहोनी, अनघट घटना की अपेक्षा कर रहा हूं कि तुम स्त्री-पुरुष से मुक्त हो जाओ। या तुम दोनों एक साथ हो जाओ। दोनों बातें एक ही हैं। तुम इस तरह से देखो कि प्रेम और ध्यान में फासला न मालूम हो । प्रेम-पगा हो तुम्हारा ध्यान । तुम्हारा प्रेम ध्यान से ही आविर्भूत हो। तुम्हारा विचार भी तुम्हारे भाव के आंसुओं से भरा हो। तुम्हारे हृदय और मस्तिष्क की दूरी कम होती जाए, होती जाए, और एक ऐसी घड़ी आ जाए कि उन दोनों का एक ही केंद्र हो जाए। उसी क्षण अखंड, उसी क्षण अद्वैत का आविर्भाव होता है। कम इसलिए मेरा संन्यास सेतु है । संसार को तोड़ना नहीं, मोक्ष को चुनना नहीं, जहां-जहां विरोध हो वहां-वहां एक को खोजना। जहां-जहां दिखायी पड़े कि कुछ विरोध है, वहां-वहां अपनी भूल मानना और अपनी भूल के ऊपर उठने की चेष्टा करना, ताकि एक के दर्शन हो सकें। इसलिए तुम्हें मैं बहुत बार एक किनारे से दूसरे किनारे, दूसरे से इस किनारे हटाऊंगा; तुम्हारी नाव को कभी उस तरफ कभी इस तरफ लाऊंगा, ताकि दोनों किनारों को तुम पहचानने लगो और तुम समझ लो कि दोनों किनारे एक ही गंगा के 37
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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