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एस धम्मो सनंतनो ईसाई, यहूदी में कुछ विरोध है। तुम विरोध की मान्यता को लेकर ही चलते हो। तुमने कभी विरोध की मान्यता पर पुनर्विचार नहीं किया। तुमने सोचा ही नहीं कि विरोध हो कैसे सकता है!
अस्तित्व अगर एक है, तो विरोध दिखता हो-देखने की भूल होगी–हो नहीं सकता। अपनी देखने की भूल सुधार लेना। विरोध कहीं है नहीं। शरीर और आत्मा में भी विरोध नहीं है, पदार्थ और परमात्मा में भी विरोध नहीं है, संसार और निर्वाण में भी विरोध नहीं है। और जिस दिन तुम्हें यह झलक दिखायी पड़ने लगेगी, उस दिन तुम जहां हो वहीं परमानंद को उपलब्ध हो जाओगे। ___ जब तक तुम्हें विरोध दिखेगा, तब तक तुम बेचैनी में रहोगे। क्योंकि दुकान पर बैठोगे तो मंदिर की याद आएगी-क्योंकि मंदिर और दुकान में विरोध है। तुम्हारा मन तड़फेगा कि जीवन गंवा रहा हूं दुकान पर बैठा-बैठा। ये क्षण तो थे पूजा के थाल संवार लेने के ये क्षण तो थे अर्चना के, प्रार्थना के; यह घड़ी तो ध्यान में लगाने की थी, मैं कहां धन में गंवा रहा हूं! तुम अपनी ही निंदा करोगे। तुम अपने को ही पापी, अपराधी समझोगे। तुम अपने ही अपराध में सिंकुड़ोगे। .
फिर अगर तुम मंदिर में जाओगे, तो दुकान पीछा करेगी। लगेगा कि इतनी देर में तो कुछ कमायी हो जाती; पता नहीं किस मंदिर में बैठकर मैं क्या कर रहा हूं! यह मूर्ति सच भी है कि सिर्फ मान्यता है ? ये जिन्होंने पूजा की, की भी है कि सिर्फ धोखा दिया है? यह धर्म कहीं अफीम का नशा तो नहीं? यह कहीं पुजारियों, पंडितों का पाखंड-जाल तो नहीं? हजार प्रश्न मंदिर में उठेंगे, हजार प्रश्न दुकान में उठेंगे।' __ लेकिन, न तो तुम दुकान पर बैठकर मंदिर के प्रश्न हल कर पाओगे, न मंदिर में बैठकर दुकान के प्रश्न हल कर पाओगे। क्योंकि प्रश्नों की जड़ तुम्हारे भीतर एक बुनियादी धारणा में है। बुनियादी धारणा है कि तुमने विरोध स्वीकार कर लिया कि मंदिर अलग, दुकान अलग; संसार अलग, निर्वाण अलग। अलग वे नहीं हैं। ऐसे जीओ कि उनका अलगपन गिर जाए। इसी जीने को मैं संन्यास कहता हूं।
इसलिए मेरे संन्यास को पुराना संन्यासी समझ भी नहीं सकता। उसकी तो कल्पना ही संसार के विरोध में संन्यास की थी। वह तो धारणा ही यही थी कि संसार को छोड़ देना संन्यास है। और मेरी धारणा यही है कि द्वैत को छोड़ देना संन्यास है। द्वंद्व को छोड़ देना संन्यास है। अतियों में अति न देखना संन्यास है। मंदिर में, मस्जिद में, बाजार में, पूजागृह में, पदार्थ में, परमात्मा में एक को ही देख लेना। माया और ब्रह्म में एक को ही देख लेना। ____ मैं तुमसे जिस संन्यास की बात कर रहा हूं वह शंकराचार्य के संन्यास से भी ऊंचे अद्वैत तक जाता है। क्योंकि शंकराचार्य का संन्यास तो फिर भी माया में, ब्रह्म में विरोध मानता है। कहता है, माया छोड़ो, तो ब्रह्म मिलेगा। जिस माया को छोड़ने से ब्रह्म मिलता हो, वह ब्रह्म कुछ बहुत कीमती नहीं हो सकता। माया से ज्यादा
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