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________________ एस धम्मो सनंतनो तो अगर तुम महावीर को समझो, तो तुम ज्ञानी को समझ रहे हो; पतंजलि को समझो, तो ज्ञानी को समझ रहे हो। वह मस्तिष्क का आधा हिस्सा है। उसकी बड़ी खूबियां हैं। अगर तुम नारद को समझते हो, चैतन्य को समझते हो, तो मस्तिष्क के दूसरे हिस्से को समझ रहे हो; उसकी भी बड़ी खूबियां हैं। __ अगर तुम मेरे साथ खड़े होने को राजी हुए हो, तो मेरा कोई पक्षपात नहीं है। इसलिए मैं तुम्हें बड़ी मुश्किल में डालूंगा, जब तक कि तुम मिट ही न जाओ। तुम हो तो मुश्किल रहेगी। क्योंकि तुम फिर-फिरकर घर बना लोगे और मैं फिर-फिरकर घर उजाड़ दूंगा। तुम मुझसे कई दफा नाराज भी हो जाओगे कि यह मामला क्या है? हम किसी तरह भरोसा ला पाते हैं, हमें बात जंचने के करीब होती है, इधर हम बैठने-बैठने को ही हो रहे थे कि चलो अब जगह मिल गयी, कि फिर उखाड़ दिया। घर बनने दोगे या नहीं! या आयोजन ही चलता रहेगा, घर बनने ही न दिया जाएगा! नहीं, मैं घर बनने न दूंगा। मैं तुम से यह कह रहा हूं, सभी सरायें हैं। रुको सब जगह, मगर रुक ही मत जाना। ठहरो सब जगह, बस ठहर ही मत जाना। तुम्हारी धारा सतत बहती रहे। दोनों किनारों को छूती, अतियों को जोड़ती, द्वंद्व के.अतिक्रमण करती। तुम अद्वैत होते रहो। तुम्हें न भक्ति, न ज्ञान। द्वंद्व की भाषा ही भ्रांत है। लेकिन, एक पर ही एकबारगी बोला जा सकता है। तब इतनी उलझन हो जाती है। अगर मैं दोनों पर एक साथ बोलूं, तब तो तुम्हारे पल्ले भी कुछ न पड़ेगा। इसलिए कभी भक्ति पर बोलता हूं, कभी ज्ञान पर बोलता हूं, तुम इससे यह मत सोचना कि मैं तुम्हें अतियों में उलझा रहा हूं। __ पूछा है, 'कल तक आप हमें परमात्मा की ओर जाने को कह रहे थे, आज अपनी ओर आने को कह रहे हैं।' भाषा का ही भेद है। अपनी ओर जो गया, वह परमात्मा कि ओर पहुंच गया। और तुमने कभी सुना, परमात्मा की ओर जो गया हो, वह अपनी ओर न पहुंचा हो? परमात्मा की ओर अगर गए, तो अपनी ही ओर पहुंचोगे। परमात्मा अपनी ही ओर आने का ढंग है। अपनी ओर अगर गए, तो परमात्मा की ही तरफ पहुंचोगे। अपनी ओर आना भी परमात्मा की तरफ ही जाने का ढंग है। क्योंकि तुम परमात्मा हो। इस आत्यंतिक निचोड़ को गहरे से गहरा अपने भीतर समा जाने दो : तुम परमात्मा हो। अपनी ओर आओ तो परमात्मा पर पहुंचोगे, परमात्मा की ओर जाओ तो अपनी ओर पहुंच जाओगे। तुम्हारे होने में और परमात्मा के होने में रत्तीभर का भी भेद नहीं है। यह दर्पण का महल कि इसमें सब प्रतिबिंब तुम्हारे हैं भ्रम के इस परदे में तुमने कितने रहस संवारे हैं तुम्ही हो। किसी भी दर्पण में देखोगे, अपनी ही छाया पाओगे। जहां भी तुमने 34
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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