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________________ झुकने से उपलब्धि, झुकने में उपलब्धि सम्यक-रूप कभी खुल न सकेगा। तुम जो करो वही तुम्हारा भीतर का मन भी कहे, तुम जो कहो वही तुम करो भी, तुम्हारे भीतर एक समस्वरता हो-समस्वरता यानी शील। इसलिए बुद्ध कहते हैं, 'दुःशील और असमाहित।' । जो आदमी शील को छोड़ेगा, उसके भीतर की समता, समाहितता, सामंजस्य, संगीत, समन्वय खो जाएगा। शील, समाहित, समाधिस्थ—उसके भीतर सब शांत हो जाएगा, समता हो जाएगी, सम्यकत्व हो जाएगा। और सौ साल अशांत जीने की बजाय शीलवंत और ज्ञानी का एक क्षण का जीना भी श्रेष्ठ है। ___ 'आलसी और अनुद्यमी होकर सौ साल जीने की अपेक्षा दृढ़ उद्यमशील का एक दिन जीना भी श्रेष्ठ है।' 'आलसी और अनुद्यमी होकर...।' आलस्य का अर्थ क्या है? आलस्य का अर्थ है, जीवन तो मिला, लेकिन हम उपयोग नहीं करेंगे। सुबह हुई, लेकिन उठेंगे नहीं। सुबह का अर्थ है, उठो। भोर हुई, रात गयी, पक्षी भी जाग गए, जिनको तुम पशु कहते हो निंदा से, वे भी उठ गए, वृक्षों ने भी आंखें खोल दी, फूल सूरज की खोज पर निकल पड़े, सब तरफ जीवन उठा, तुम पड़े हो! तुम यह कह रहे हो कि भगवान, तूने मार क्यों न डाला? तू मार ही डालता तो अच्छा था। हम उठने को तैयार ही नहीं। तुममें और कब्र में पड़े आदमी में फर्क क्या है? आलस्य का अर्थ है, तुम जीवन का अवसर खो रहे हो। जहां ऊर्जा बहनी चाहिए, जहां ऊर्जा का प्रवाह होना चाहिए, जहां ऊर्जा नृत्यवान होनी चाहिए, वहां तुम बैठे हो सुस्त, काहिल, मुर्दे की भांति। जहां प्रेम की तरंग उठनी थी, वहां तुम उदास बैठे रहे, धूल चढ़े। जहां तुम्हारा चित्त का दर्पण चमकना था, जीवन का प्रतिफलन होता, वहां तुम पड़े रहे एक कोने में, अपने को अपने ही हाथ से अस्वीकार किए। • आलस्य का अर्थ है, जीवन अवसर देता, तुम खोते। जीवन बुलाता, तुम सुनते नहीं। जीवन आवाहन देता, तुम बहरे रह जाते। जीवन हजार-हजार तरफ से चोटें करता-उठो! तुम ऐसे जड़ कि चोटों को धीरे-धीरे पी जाते, अभ्यस्त हो जाते, पड़े रहते अपनी जगह। 'आलसी और अनुद्यमी होकर सौ साल जीने की अपेक्षा...।' फिर फायदा क्या? आलस्य है क्रमिक आत्मघात। मरना ही हो, एकदम से मर जाओ। यह धीरे-धीरे का मरना क्या? यह आहिस्ता-आहिस्ता मरना क्या? जीना हो, भभककर जी लो! ___ पश्चिम की एक बहुत विचारशील महिला रोजा लक्जेंबर्ग का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि अगर जीना हो, मशाल को दोनों तरफ से जलाकर जी लो। 19
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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