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________________ एस धम्मो सनंतनो मन में कांटा चुभेगा । तुम कुछ भी करो, झूठा चरित्र दुख देगा । ऐसा करो - पक्ष में; या वैसा करो - विपक्ष में; झूठे चरित्र ने सुख जाना ही नहीं। फिर कैसा चरित्र सुख जाता है ? जो तुम्हारे भीतर, तुम्हारी समझ, तुम्हारी अंतर्दृष्टि से निकलता है। करो वही जो तेरे मन का ब्रह्म कहे और किसी की बातों पर कुछ ध्यान न दो मुंह बिचकाएं लोग अगर तो मत देखो बजती हों तालियां अगर तो कान न दो - चरित्र बड़ी क्रांतिकारी घटना है। हुआ तो उलटा है। समाज में तुम अक्सर जो नपुंसक हैं, कमजोर हैं, उनको चरित्रवान पाओगे । हिम्मत न जुटा पाए – जाना तो मधुशाला था, मंदिर बीच में अड़ा था, प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती। हिम्मत न जुटा पाए—जाना तो वेश्या तक था, लेकिन रामायण बीच में खड़ी थी, मर्यादा बीच में खड़ी थी। जाना कहीं था, गए कहीं । चाहते थे पूरब, पहुंचे पश्चिम; कमजोरी के कारण... 1 तुम अपने समाज में जिन लोगों को चरित्रवान समझते हो, जरा गौर से देखना । कहीं उनका चरित्र उनकी कायरता तो नहीं है ? मैंने तो ऐसा सौ में निन्यानबे मौकों पर देखा कि जिनको तुम चरित्रवान कहते हो, वे कायर हैं । उनमें चरित्रहीन होने की हिम्मत नहीं, तो उन्होंने चरित्र का चोगा ओढ़ लिया है। वे कहते हैं, हम चरित्रहीन होना ही नहीं चाहते। लेकिन उनके भीतर वही कीड़ा काटता रहता है। अक्सर मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, दूसरे चरित्रहीन हैं, बेईमान हैं, धोखेबाज हैं, फल-फूल रहे हैं । और हम, जैसा शास्त्र में कहा है वैसा ही कर रहे हैं, कोई आशा नहीं दिखायी पड़ती, कोई सफलता नहीं मिलती । चरित्रवान और ऐसी बात कहेगा ! निश्चित ही यह चरित्रवान भी अपने चरित्र के द्वारा वही पाना चाहता है जो चरित्रहीनों ने चरित्रहीनता के द्वारा पा लिया। मगर यह चरित्र भी बचाना चाहता है । यह वेश्यालय भी जाना चाहता है शोभायात्रा में बैठकर, लोग फूलमालाएं चढ़ाएं और यह वेश्यालय पहुंच जाए। तो जो कुट-पिट कर पहुंचे हैं वेश्यालय, उनसे इसके मन में ईर्ष्या है। पहुंचना तो इसे भी वहीं था, मंजिल तो इसकी भी वही थी, हिम्मत न जुटा पाए। कमजोर चरित्रवान नहीं हो सकता। जो चरित्रहीन ही नहीं हो सका, वह चरित्रवान कैसे हो सकेगा ? इसे मुझे फिर से दोहराने दो, जो चरित्रहीन भी होने की हिम्मत न जुटा पाया, वह चरित्रवान होने का साहस कैसे जुटा पाएगा? चरित्र क्या चरित्रहीनता से भी गया- बीता है ? चरित्र तो महा ऊर्जा है। करो वही जो तेरे मन का ब्रह्म कहे और किसी की बातों पर कुछ ध्यान न दो मुंह बिचकाएं लोग अगर तो मत देखो 16
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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