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________________ झुकने से उपलब्धि, झुकने में उपलब्धि सिक्का चल पड़ा। समाज, समाज के ठेकेदार, पंडित-पुरोहित, उन्होंने भी शील का नकली सिक्का गढ़ लिया। जब शील की इतनी चर्चा चली और सारे बुद्धपुरुषों ने शील की बात कही, तो स्वभावतः नकली सिक्के भी चल गए। नकली सिक्के तभी चलते हैं जब असली सिक्के में कोई बल हो। तुमने नकली सिक्कों के नकली सिक्के तो नहीं देखे। असली सिक्कों के ही नकली सिक्के चलते हैं। जो नोट चलता ही न हो, उसका कोई नकल करके भी क्या करेगा? जो दवा खुद ही न बिकती हो, असली न बिकती हो, उसकी नकली कोई क्या तैयार करेगा? नकली तो सिर्फ इतनी खबर देती है, वह असली के प्रति सम्मान है। वह असली की प्रशंसा है नकली का होना। शील की बुद्धों ने बात की। लेकिन उनका शील से प्रयोजन बिलकुल अलग है। और जब तुम्हारे समाज के ठेकेदार, मंदिर-मस्जिदों के ठेकेदार शील और चरित्र की बात करते हैं, उनका मतलब बिलकुल और ही है। शब्द तो वही उपयोग करते हैं, लेकिन पीछे उनके अर्थ बिलकुल अलग हैं। बुद्ध कहते हैं शील उस जीवन की व्यवस्था को, जो तुम्हारे आंतरिक ध्यान से उपजे। इसलिए शीलवंत और ध्यानी एक साथ उपयोग किया है। कहीं चूक न हो जाए। जो शील तुम्हारे ध्यान के साथ रगा-पगा हो; जिस शील में ध्यान की गंध हो; जिस ध्यान में शील की गंध हो; जो शील एक तरफ से शील हो, दूसरी तरफ से ध्यान हो; एक ही सिक्के के दो पहलू हों-एक तरफ शील, दूसरी तरफ ध्यान-तो ही सार्थक है। अन्यथा चरित्र धोखा हो जाता है, पाखंड हो जाता है। चरित्र दो तरह से निर्मित हो सकता है। बाहर से आरोपित, अंतर से आविर्भूत। लोग कहते हैं, ऐसा चरित्र चाहिए, और तुम पर थोप देते हैं। यह चरित्र झूठा है। तुम करोगे भी,बेमन से करोगे। तुम करोगे भी, करना भी न चाहोगे। करने से पीड़ा होगी। न करने से भी पीड़ा होगी। तुम अड़चन में पड़ोगे। अगर यह तुम्हारी अपनी अंतर्दृष्टि नहीं है, तो तुम करके भी पछताओगे, क्योंकि तुम्हारा मन कुछ और करना चाहता था। तुम शराब पीना चाहे थे, तुम मधुशाला जाने को आतुर थे, लेकिन पैर नं जा सके। बीच में मस्जिद खड़ी थी, मंदिर खड़ा था, पंडित-पुजारी खड़े थे, तुम इतनी हिम्मत भी न जुटा पाए कि मधुशाला जा सकते। तुम लौट पड़े, मस्जिद में नमाज पढ़ने लगे। करना तो था कुछ, समय तो भरना था किसी से, मन को तो उलझाना था कहीं। पूजा की, पाठ किया, प्रार्थना की, लेकिन सब झूठा होगा। सब ऊपर-ऊपर होगा। कागजी होगा। भीतर मन मधुशाला के ही सपने देखेगा। न जाओगे मधुशाला, तो पछताओगे कि जो करने का मन था, वह न कर पाए। यह कुंठा घेरेगी। तुम दबे-दबे अनुभव करोगे। तुम्हारा जीवन बोझ रूप हो जाएगा। और अगर तुम गए, तो मधुशाला में बैठकर भी तुम सुख न पाओगे। क्योंकि तब अपराध पकड़ेगा कि यह मैंने क्या किया? बुरा किया। मंदिर को त्याग कर मधुशाला आया। पुजारी की न सुनी, साधु की न सुनी, ज्ञानी की न सुनी। तब तुम्हारे 15
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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