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आत्म-स्वीकार से तत्क्षण क्रांति
अगर डुबकी ठीक से लग गयी, तो फिर तुम कहीं भी जाओ, मुझमें डूबे रहोगे। अगर कभी-कभी धूल-धवांस जम जाए, फिर आ जाना, फिर डुबकी लगा लेना । लेकिन अब सागर के किनारे ही बैठ जाने की कोई जरूरत नहीं है। घर-द्वार है, परिवार है, बच्चे हैं, वहां भी परमात्मा है — इतना ही जितना यहां है ।
तो मैं तुम्हें कहीं से भी तोड़ना नहीं चाहता । परमात्मा से तो जोड़ना चाहता हूं, लेकिन कहीं से तोड़ना नहीं चाहता। इस बात को मैं जितने जोर देकर कह सकूं, कहना चाहता हूं। मैं तुम्हें संसार से तोड़ना नहीं चाहता और मैं तुम्हें संन्यास से जोड़ना चाहता हूं। जो संन्यास संसार से तोड़ने पर निर्भर हो, वह संसार के विपरीत होगा, अधूरा होगा; अपंग होगा, अपाहिज होगा ।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित संन्यासी अपाहिज हैं, लंगड़े-लूले हैं; तुम पर निर्भर हैं; तुम्हारे इशारों पर चलते हैं। अब यह बड़े मजे की बात है, गृहस्थी चलाते हैं संन्यासियों को, उनको इशारा देते हैं ।
मेरे पास अगर कभी कोई संन्यासी मिलने आता है, तो पूछना पड़ता है अपने श्रावकों से कि मिल लूं? अगर वे हां कहते हैं, ठीक; न कहते हैं तो नहीं आ पाते। जैन मुनि मुझे मिलने आना चाहते हैं; कभी आ भी जाते हैं चोरी-छिपे, तो वे कहते हैं, श्रावक आने नहीं देते। श्रावक ! संसारी आने नहीं देते। यह खूब संन्यास हुआ ! और ये सोचते हैं कि उन्होंने संसार का त्याग कर दिया है। जिन पर तुम निर्भर हो, उनका तुम त्याग कर कैसे सकोगे ? कहीं से रोटी तो मांगोगे ! रोटी में ही छिपी जंजीरें आ जाएंगी। कहीं से कपड़ा तो मांगोगे ! कपड़े में ही कारागृह आ जाएगा। कहीं रात ठहरने की जगह तो मांगोगे ! सुबह पाओगे, पैरों में जंजीरें पड़ी हैं।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, अपाहिज संन्यासी मुझे बनाने नहीं । जब संन्यासी को भी संसार पर निर्भर रहना पड़ता है, तो यही बेहतर होगा कि संन्यासी संसारी रहे। कम से कम मुक्त तो रहोगे । मेरा संन्यासी कम से कम मुक्त तो है, किसी पर निर्भर तो नहीं; अपनी नौकरी करता है, अपनी दुकान करता है, बच जाते हैं जो क्षण, परमात्मा की भक्ति में, सत्य के गुणगान में, ध्यान में लगा देता है। कम से कम किसी पर निर्भर तो नहीं है। किसी के ऊपर बोझ तो नहीं है। किसी दूसरे से आज्ञा तो नहीं मांगनी है। मुक्त तो है ।
मैं तुम्हें तोड़ना नहीं चाहता। तुम जहां हो, वहीं तुम्हें संन्यासी होना है।
तुमने सागर में डुबकी लगा ली, अब तुम जाओ! लौट जाओ घर ! जो रस तुम्हें मिला है, उसे साथ ले जाओ। यह रस कुछ बाहर का नहीं है, जो यहां से चले जाने से छूट जाएगा। अगर यहां से चले जाने से छूट जाए तो यहां रहकर भी क्या फायदा ! यह तो धोखा होगा |
इसलिए मैं कहता हूं मेरे संन्यासियों को : आओ, जाओ! हां, कभी-कभी ऐसा लगे कि फिर एक झलक लेनी है, फिर एक गहराई में उतरना है— फिर आ जाना ।
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