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________________ आत्म-स्वीकार से तत्क्षण क्रांति - मैं तुमसे कहता हूं, कहीं कुछ लड़ने को नहीं है। जीवन को मित्र जानो। जीवन मित्र है। तुम उसी से आए, किससे लड़ रहे हो? तुम उसी में जन्मे, किससे लड़ रहे हो? तुम मछली हो इस सागर की। यह सागर तुम्हारा है। तुम इस सागर के हो। तुम ये फासले छोड़ो, दुई छोड़ो, लड़ने वाली बात छोड़ो। तुम इस सागर में जीओ आनंद से, अहोभाव से। कहीं पहुंचना नहीं है। तुम जहां हो, वहीं जागना है। दूसरा प्रश्न: आपने तीन स्वर्णपात्रों वाली बोध कथा कही, जिसमें गुरु ने उस शिष्य को स्वीकार किया जिसने स्वर्णपात्र के साथ सम्यक व्यवहार किया था। लेकिन मैं तो उन दो शिष्यों जैसा हूं जिन्होंने स्वर्णपात्र को या तो गंदा छोड़ दिया, या तोड़ दिया। फिर भी आपने किस आधार पर स्वीकार किया मुझको? कृपया समझाएं। | मैं यदि उस फकीर की जगह होता, तो जिसे उसने स्वीकार किया था, उसे छोड़कर बाकी दो को स्वीकार कर लेता। क्योंकि जिसे उसने स्वीकार किया था, वह तो उसके बिना भी पहुंच जाएगा। और जिन्हें उसने अस्वीकार कर दिया, वे उसके बिना न पहुंच सकेंगे। उसने तो कुछ ऐसा किया कि जैसे चिकित्सक स्वस्थ आदमी को स्वीकार कर ले और अस्वस्थ को कह दे कि तुम तो हो बीमार, हम तुम्हें स्वीकार न करेंगे। लेकिन चिकित्सक का प्रयोजन क्या है? वह बीमार के लिए है। स्वस्थ को अंगीकार कर लिया, बीमार को विदा कर दिया-यह कोई चिकित्साशास्त्र ढुआ! सुगम को स्वीकार कर लिया। उस आदमी के साथ कोई अड़चन न थी। वह साफ-सुथरा था ही। कुछ करना न था। गुरु ने अपनी झंझट बचायी। गुरु ने अपना दृष्टिकोण जाहिर किया कि मैं झंझट में नहीं पड़ना चाहता। __मैं कोई झंझट बचाने को उत्सुक नहीं हूं। झंझट आती हो तो मैं बहता हूं, स्वीकार करता हूं। जब झंझट खुद ही आ रही हो तो मैं इनकार करने वाला कौन! बड़े झंझटी लोग आ जाते हैं संन्यास लेने; मैं कहता हूं, लो! तुम्हें कोई और देगा भी नहीं। मेरे अतिरिक्त तुम्हारा संन्यास संभव नहीं है। लेकिन मैं खुश हूं, क्योंकि यही तो मजा है। उस गुरु ने तो ऐसा किया जैसे कोई मोम की मूर्ति बनाता हो। यह कोई ज्यादा देर टिकने वाली मूर्ति नहीं है-मोम की है, बड़ी सुगम है। मेरा रस पत्थरों में मूर्ति खोदने में है। जो अपने से ही पहुंच जाएंगे उनको साथ देने का क्या प्रयोजन है! जो 253
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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