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________________ एस धम्मो सनंतनो अपने से न पहंच पाएंगे उनके हाथ में हाथ देने का कुछ अर्थ है, कुछ सार है। ___मैं तुमसे कहता हूं, वह व्यक्ति तो पहुंच ही जाता; उसके पास तो सूझ साफ थी, दृष्टि स्पष्ट थी। उसके पास करने जैसा अब कुछ था नहीं बहुत, सब हुआ ही था। जिन दो को इनकार कर दिया वे भी तलाश में थे, अन्यथा आते नहीं। उन्हें इनकार करने में शोभा नहीं रही। गुरु गणितज्ञ था; होशियार तो था, लेकिन गुरु की शोभा खो गयी। तो तुम पूछते हो कि तुम्हें मैंने किस आधार पर स्वीकार किया है। तुम्हारा पूछना मेरी समझ में आता है। तुम खुद ही अपने को स्वीकार नहीं करते हो और मैंने तुम्हें स्वीकार किया है—इसलिए सवाल उठता है कि किस आधार पर! ___ मैं तुमसे कहता हूं, जब मैंने तुम्हें स्वीकार किया, तुम भी अपने को स्वीकार करो। क्योंकि तुम्हारी स्वीकृति से ही तुम्हारा सूर्योदय होगा। जब तक तुम अपने से लड़ते रहोगे, अपने को अस्वीकार करते रहोगे, निंदा करते रहोगे, तब तक तुम कैसे रूपांतरित होओगे? निंदा का अर्थ होता है, तुमने बांट दिया अपने को दो खंडों में। एक हिस्से को कहा निंदित है और एक हिस्से को सिरताज बनाया। यह तुम ही हो दोनों। जिसकी निंदा करते हो वह भी तुम्ही हो, जो निंदा कर रहा है वह भी तुम्ही हो। अब यह जो तुमने द्वैत अपने भीतर खड़ा कर लिया, यह जो तुमने दो टुकड़े कर दिए अपने, यह तुम खंड-खंड हो गए-अब तुम्हारे जीवन का सारा संगीत न खो जाए तो और क्या हो! तो मेरी पहली शिक्षा यह है कि तुम ये खंड समाप्त करो, निंदा,छोड़ो! स्वीकार करो। यह अस्वीकार लड़ना है। स्वीकार समर्पण है। मैं कहता हूं, राजी हो जाओ, तुम जैसे हो। क्या करोगे? प्रभु ने तुम्हें ऐसा बनाया। तुम जब अपनी निंदा कर रहे हो तब तुम समस्त की भी निंदा कर रहे हो। तुम कह रहे हो कि यह मुझे ऐसा क्यों बनाया? तुम्हारी शिकायत यह है कि तुम यह कह रहे हो कि मुझे किसी और ढंग का बनाना था। मुझे बुद्ध क्यों न बनाया! महावीर क्यों न बनाया! यह मुझे तुमने क्या बना दिया? । ___ किससे शिकायत कर रहे हो? वहां कोई भी नहीं, जो तुम्हारी शिकायत सुने। और किसी ने बनाया थोड़े ही है। तुम हुए हो। कोई जिम्मेवार नहीं है। और परमात्मा ने तुम्हें अपने से अलग थोड़े ही बनाया है, परमात्मा की तुम एक लहर हो। तुम हुए हो। स्वीकार करो। अस्वीकार करने में कुछ सार नहीं है। अस्वीकार करके तुम लड़ोगे, परेशान होओगे; व्यथित, बेचैन होओगे। जो क्षण सौभाग्य के हो सकते थे, दुर्भाग्य के हो जाएंगे। और जहां महासंगीत पैदा हो सकता था, वहां तुम वीणा की निंदा में ही पड़े-पड़े वीणा को तोड़ डालोगे। तोड़ो मत वीणा को। अगर तार थोड़े ढीले हों, थोड़े कसो। तार बहुत कसे हों, थोड़े ढीले करो। और जो भी तुम हो, यही तुम हो; इससे अन्यथा तुम हो नहीं सकते। इसलिए 254
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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