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झुकने से उपलब्धि, झुकने में उपलब्धि जीए। तो बुद्ध ने कहा है, शूद्र सभी पैदा होते हैं, ब्राह्मण कभी-कभी कोई बन पाता है। पैदा तो सभी शूद्र होते हैं। शूद्र होना स्वाभाविक है। ब्राह्मण के घर में भी जो पैदा होता है, वह भी शूद्र ही पैदा होता है। लेकिन शूद्र के घर में भी कोई अगर स्वयं के ज्ञान को उपलब्ध हो जाए तो ब्राह्मण हो जाता है।
तो बुद्ध का वर्ण आत्मक्रांति का है।
बुद्ध कहते हैं, जिसने अभिवादन सीखा, जिसने झकना सीखा, जिसने जीवन के मूल पर श्रद्धा के फूल चढ़ाए, उसके जीवन में शाश्वत उतरता है। शाश्वत के पीछे-पीछे ही शूद्रता विलीन हो जाती है, जैसे प्रकाश के आने पर छाया अंधेरा खो जाता है। वैसा व्यक्ति ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो जाता है, क्योंकि ब्रह्म को उपलब्ध हो जाता है। शाश्वत यानी ब्रह्म।
फिर सुख है। तुमने जिसे सुख कहा, वह नाममात्र को है, पीछे तो दुख ही छिपा है। ऊपर-ऊपर सुख लिखा है, भीतर-भीतर दुख छिपा है। बुद्ध सुख उसे कहते हैं, जो प्रथम में सुख, मध्य में सुख, अंत में सुख। जो कहीं से भी चखो, तो सुख। जिसे कैसे ही उलटो-पलटो, तो सुख। जिसको तुम कुछ भी करो, तो सुख। __ जापान में बुद्ध का महान संन्यासी भक्त हुआ, बोधिधर्म। उसकी प्रतिमा पूजी जाती है। जापान में उसका नाम है, दारुमा। तुमने दारुमा की जापानी गुड़ियां देखी होंगी। उन गुड़ियों की खूबी यह है कि उनको फेंको कैसा ही, वे हमेशा पालथी मारकर बैठ जाती हैं। उनकी पालथी वजनी है, अंदर शीशा भरा है। उनको फेंको उलटा-सीधा, लुढ़काओ, कुछ भी करो, कोई उपाय नहीं है, दारुमा हमेशा अपनी पालथी मारकर बुद्ध की भांति बैठ जाते हैं। ____इसको बुद्ध सुख कहते हैं। तुम कुछ भी करो, उलटा करो, सीधा करो, ऐसा,
वैसा, यहां से चखो, वहां से चखो, तुम उसे सुख ही पाओगे। जो प्रथम में, मध्य में, अंत में सुख है।
तुमने जिन्हें सुख जाना है, वह प्रथम तो सुख मालूम होते हैं, मालूम हुए भी नहीं कि जहर फैला। स्वाद लिया भी नहीं था कि तिक्तता आने लगी। हाथ बढ़ा ही नहीं था कि कांटे चुभने लगे। यह सुख नहीं है। यह तो ऐसा ही है जैसा मछली को पकड़ने के लिए हम कांटे में आटा लगाते हैं। कोई आटा खिलाने को थोड़े ही मछलियों को बांधकर बंसी में बैठा है! आटे में कांटा छिपाया हुआ है। मछली कांटा नहीं खाएगी,
आटा खाएगी। लेकिन जो बंसी लगाकर बैठा है, उसकी नजर कांटे पर है। ____जिनको तुमने सुख कहा है, उनके भीतर कांटे छिपे हैं। फंसोगे तुम कांटे में। जाओगे आटे की आशा में। हजार-हजार अनुभवों के बाद भी हम सीखते नहीं। जहां-जहां सुख दिखायी पड़ता है, फिर दौड़ जाते हैं। फिर कहीं आटा दिखायी पड़ा, चली मछली! सब अनुभव को बिसरा कर, सब भूल कर।
पहले भी ऐसा ही हुआ था, लेकिन आशा बड़ी अदभुत है। आशा से बड़ी कोई