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________________ अशांति की समझ ही शांति कभी सोचा न था कि तुम करोगे! बस इतना ही कहा। कहा जाओ! उस आदमी ने जाकर घर में आत्महत्या कर ली। यह किसी के सामने भी न कहा था, यह बिलकुल एकांत में हुआ था। इतना ही कि ऐसा मैंने कभी सोचा भी न था कि तुम! तुम!! और कर सकोगे! बस बात खतम हो गयी। दूसरे को उसने कारागृह में डलवा दिया—आजन्म। वह घर आया। उसने कहा, घबड़ाओ मत, शाम को मैं पकड़ा जाऊंगा लेकिन तब तक मैं इंतजाम किए लेता हूं। हर जगह से निकलने का उपाय है, जहां जाने का उपाय है, वहां से बाहर आने का उपाय है। घबड़ाओ मत। आजन्म कारावास! लेकिन वह जेलखाने में भी जाकर बाहर निकलने का उपाय खोजता रहा। तीसरे आदमी को फांसी की सजा दी है। वह आदमी रिश्वत खिलाकर भाग निकला। चौथे आदमी को काला मुंह करके गधे पर बिठाकर पूरी राजधानी में घुमवाया। मगर वह गधे पर ऐसा अकड़ से बैठा रहा जैसा शोभायात्रा निकली हो! . किसी ने अकबर को पूछा कि एक ही दंड था, चारों ने मिल कर एक पाप किया था, एक ही जुर्म किया था, इतना अलग-अलग व्यवहार क्यों? उसने कहा, वे अलग-अलग लोग थे। पहले आदमी से मैंने इतना भी कहा, उसके लिए मैं पछताता हूं। यह भी नहीं कहना था। यह कोड़े की छाया भी ज्यादा पड़ गयी। उसने घर जाकर आत्महत्या कर ली, बात खतम हो गयी। मैं पछताता हूं, मुझसे भूल हो गयी। मैं आंक न पाया ठीक से कि यह आदमी कितना बहुमूल्य है। यह बात ही न उठानी थी। सिर्फ उसे उठाकर मैं एक आंख देख लेता और घर भेज देता, बस उतना काफी था, कुछ कहना नहीं था। मैंने बुलाया, कुछ कहना चाहता था और नहीं कहा, इतना काफी हो जाता। उसे जरूरत से ज्यादा दंड हो गया। इसका मुझे पछतावा है। दूसरे आदमी को आजन्म भेजा है, लेकिन मुझे खबरें मिल रही हैं कि वह रिश्वत खिलाकर भाग निकलने की कोशिश कर रहा है, जेल के बाहर आने की; बेशर्म है। उसे अगर और भी ज्यादा सजा दी जाए तो थोड़ी होगी। तीसरे आदमी को फांसी की सजा दी, लेकिन वह भाग निकला। जैसे किसी तरह का आत्मगौरव नहीं है। चौथे को गधे पर निकलवाया है, लेकिन सुनते हैं, वह घर ऐसा लौटा है जैसे शोभायात्रा निकली हो। बड़ा प्रसन्न है कि सारी राजधानी ने जान लिया। शान से बैठा था, बड़ी भीड़ साथ चल रही थी। कुछ लोग हैं, जो कहते हैं, बदनाम हुए तो क्या, कुछ नाम तो होगा ही। बुद्ध कहते हैं, लज्जावान। वह जो पहला आदमी है, उत्तम घोड़े की भांति, कोड़े की छाया बस काफी है। ऐसे बनो-कोड़े दिखाए गए उत्तम घोड़े की भांति उद्यमी, संवेगवान, संवेदनशील। 'श्रद्धा, शील, वीर्य, समाधि, धर्मविनिश्चय, विद्या और आचार तथा स्मृति से संपन्न होकर इस महान दुख को पार कर सकोगे।' 237
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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