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________________ महोत्सव से परमात्मा, महोत्सव में परमात्मा का भ्रम है। प्रेम ज्यादा लगता है, वह जवानी का भ्रम है। भोग ज्यादा लगता है, वह जवानी का भ्रम है। फिर तुम्ही बूढ़े हो जाओगे और त्याग की भाषा बोलने लगोगे। वह बुढ़ापे का भ्रम है। . इसलिए बूढ़े और जवान में बात बड़ी मुश्किल है, वे अलग-अलग भाषा बोलते हैं। बूढ़ा कहता है, यह सब सपना है जो तुम बातें कर रहे हो। जवान कहता है, ये सब पराजय की बातें तुम्हारा हारा-थकापन है। अब तुम बूढ़े हो गए, अब मौत करीब आ रही है। तुम मौत से घबड़ गए हो। बूढ़ा आस्तिक हो जाता है। ईश्वर को मानने लगता है। जवानी नास्तिक है। जवानी अपने सिवा किसी को भी मानना नहीं चाहती। जवान कहता है, बूढ़ा मौत से डर गया है इसलिए ईश्वर को मानने लगा है, भयातुर है। यह भगवान सब भय से पैदा हुए हैं। और बूढ़ा कहता है, यह जवान अभी अंधा है। जवानी अंधी है। और अंधे को सब जगह हरा-हरा सूझता है। यह सब उतर जाएगा नशा। यह सब नशा है। तब अकल आएगी। - मगर मैं तुमसे कहता हूं, न तो जवान को अकल है, न बूढ़े को। अकल का इससे कोई संबंध ही नहीं जवानी और बुढ़ापे से। जब तक तुम अपने भीतर ऐसी जगह न खोज लोगे जो न जवान है न बूढ़ी, तब तक तुम्हारे जीवन में कोई बुद्धि की किरण नहीं हो सकती। जवान जवानी से परेशान है और जवानी की भाषा बोल रहा है। बूढ़ा बुढ़ापे से परेशान है, बुढ़ापे की भाषा बोल रहा है। हालांकि बूढ़े को लगता है, मैं ज्यादा समझदार हूं। जवान को भी यही लगता है कि मैं ज्यादा समझदार हूं। इसीलिए तो पीढ़ियों के बीच एक दरार पड़ जाती है। बाप बेटे को नहीं समझ पाता, बेटा बाप को नहीं समझ पाता। बाप बिलकुल भूल चुका कि वह भी कभी बेटा था और जवान था और इसी तरह की मूढ़ता की बातें उसने भी की थीं। वह भूल ही जाता है। मूढ़ता की बातें लोग याद ही नहीं रखते। और जवान भी यह भूल जाता है कि यह बाप भी कभी जवान था, फिर बूढ़ा हुआ है। मैं आज जवान हूं, कल मैं भी बूढ़ा हो जाऊंगा। इसकी बात को ऐसे ही न ठुकराऊं। यह आज नहीं कल मेरे जीवन में भी आने ही वाली है। इसका ऐसा तिरस्कार न करूं। लेकिन नहीं, जवान भी अंधे, बूढ़े भी अंधे। आंख तो उसके पास होती है, जो अपने भीतर उस धारा को खोज लेता है जो समय के बाहर है। न जो जवान है, न जो बूढ़ी है। कल जिस गुलाब की डाली पर बैठी बुलबुल गाती थी गीत जवानी का पंचम स्वर में हूं देख रहा अब उसकी आंखों में आंसू दब गया गीत उसका पतझर की हर-हर में जिस पाटल की पलकों की छाया के नीचे 203
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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