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________________ एस धम्मो सनंतनो अभी-अभी तुमने एक गाल का उत्तर दूसरे गाल से दिया, अब यह क्या करते हो? तो उसने कहा कि जीसस ने इसके आगे कुछ कहा ही नहीं। अब तो मैं स्वतंत्र हूं। जो मुझे करना, वह मैं करूंगा। एक गाल के उत्तर में उन्होंने कहा था दूसरा गाल कर देना। जीसस से भी उनके शिष्यों ने पूछा है। जीसस ने कहा : कोई तम्हें गाली दे, क्षमा करना। एक शिष्य ने पूछा, कितनी बार? आदमी का मन है, वह हिसाब लगाता है, कितनी बार? आखिर सीमा है। जीसस तो सोचते रहे, दूसरे शिष्य ने कहा, कम से कम सात बार। जीसस ने कहा कि नहीं, सतहत्तर बार। मगर सतहत्तर बार भी चुक जाएंगे। अठहत्तरवीं बार आने में कितनी देर लगेगी। इसलिए बुद्ध का वचन आत्यंतिक है। वे कहते हैं, प्रतिवाद ही नहीं। अन्यथा संख्या की दौड़ है फिर। सतहत्तर के बाद क्या करोगे? सात सौ सत्तर भी किया, तो भी क्या करोगे? सीमा आ जाएगी। फिर वापस तुम अपनी जगह खड़े हो जाओगे। साधु चुक जाएगा। जैसे असाधु और साधु में अंतर जो है, वह मात्रा का है, गुण का नहीं। बुद्ध कहते हैं, संत और असाधु में जो अंतर है, वह गुण का है; वह चुकेगा नहीं। वह सिर्फ शून्य है। उसका कोई प्रतिवाद नहीं है। ___और जिसके मन में कोई प्रतिवाद नहीं है, जिसके पास मन ही नहीं है—निर्वाण का अर्थ ही यही होता है कि जिसने मन को ही छोड़ दिया, अब जिसके भीतर कोई उत्तर नहीं उठते, कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। अब जो देखता रहता है खाली, शून्य आंखों से; जो जागा रहता है प्रतिपल, जिसका दीया जलता रहता है निर्विकार आकाश में, वही निर्वाण को उपलब्ध है। एक दिन भी जी मगर तू ताज बनकर जी अटल विश्वास बनकर जी कल न बन तू जिंदगी का, आज बनकर जी ओ मनुज! मत विहग बन, आकाश बनकर जी ओ मनुज! मत विहग बन, आकाश बनकर जी एक युग से आरती पर तू चढ़ाता निज नयन ही पर कभी पाषाण क्या यह पिघल पाए एक क्षण भी आज तेरी दीनता पर पड़ रहीं नजरें जगत की भावना पर हंस रही प्रतिमा धवल, दीवार मठ की मत पुजारी बन स्वयं भगवान बनकर जी एक दिन भी जी मगर तू ताज बनकर जी निर्वाण ताज है। उसके पार फिर कुछ भी नहीं। निर्वाण मनुष्य के होने की आखिरी संभावना और कल्पना है। वह आखिरी आकाश है। उसके आगे फिर और कोई आकाश नहीं। निर्वाण का अर्थ है, तुम हो और नहीं हो। तुम हो पूरे और 184
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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