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________________ आज बनकर जी! नहीं कल, गीत गाने लगोगे। करोगे क्या? वही ऊर्जा जो गाली बनती थी, गीतों में प्रगट होगी। अगर तुमने निंदा न की, तो तुम्हारे जीवन में कहीं न कहीं से प्रार्थना का स्वर उठने ही लगेगा। इसलिए बुद्ध भरोसा करते हैं कि वह तो होगा, उसकी बात भी नहीं उठाते। तुम बस इतना कर लो। गलत तुमसे न हो, ठीक अपने से होने लगेगा। क्योंकि वही ऊर्जा जो गलत में नियोजित होती थी, जब मुक्त हो जाएगी तो शुभ का, सत्य का, सुंदर का निर्माण करेगी। तुम गलत तरफ मत जाने दो, ठीक तरफ अपने से जाएगी। प्रेम ही मानव जीवन सार प्रेम, हरि कहता सर्व समर्थ प्रेम के बिना न जीवन-मूल्य समझता मन न सृष्टि का अर्थ बुद्ध प्रेम शब्द का उपयोग नहीं करते। वे कहते हैं, सबको अपने समान जानकर तुम्हारे जीवन में सृष्टि का अर्थ प्रगट होगा। लेकिन तुम इसे प्रेम कह सकते हो। तुम्हें आसानी होगी समझने में। बुद्ध की भाषा पर जिद्द करने की कोई जरूरत नहीं। मेरे साथ तुम सब तरह की भाषाएं उपयोग करने के लिए मुक्त हो। बस अपनी बेईमानी को भर बीच में मत लाना, सब भाषाओं का उपयोग करो। - मुहब्बत से ऊंचा नहीं कोई मजहब - मुहब्बत से ऊंची नहीं कोई जात लेकिन प्रेम का अर्थ ही केवल इतना है कि तुमने जो अपने भीतर देखा है, उसे ही तुम अपने बाहर भी देखने लगो। तुमने जिससे भीतर पहचान बनायी है, उसी से तुम बाहर भी पहचान बनाओ। लेकिन एक बड़ी कठिन शर्त सामने खड़ी हो जाती है तुम्हारी अपने से पहचान नहीं। तुमने अभी अपने को ही नहीं जाना। ___ इसलिए मैं कहता हूं, बुद्धपुरुष स्वार्थ सिखाने हैं। तुम दूसरों को जानते मालूम पड़ते हो, लेकिन तुमने अभी अपने से भी पहचान नहीं बनायी। कैसे तो तुम दूसरों को जानोगे, जो अपने को भी नहीं जानता! जिसे आत्म-अर्थ न खुला, उसे सृष्टि का अर्थ कैसे खुलेगा? जो मैं के भीतर न उतर सका, वह तू के भीतर कैसे उतरेगा? अपने ही घर की सीढ़ियों पर तुम उतरे नहीं, अपनी ही गहराइयों को न छुआ, अपनी ऊंचाइयों में उड़े नहीं, तो तुम दूसरे की ऊंचाइयों में कैसे उड़ोगे? और मजा यह है कि अगर तुम अपने ही आंगन की ऊंचाई पर उड़ो, तो जैसे तुम ऊंचे उठते हो, तुम्हारा आंगन खोता जाता है। आकाश सब का है। उड़ो कहीं से। उड़ने का प्रारंभ भला आंगन से होता हो, अंत तो आकाश में है। ___ जैसे-जैसे तुम प्रेम में ऊपर उठते हो, जैसे-जैसे तुम आत्म-परिचय में गहरे उतरते हो, वैसे-वैसे सीमाएं खोती चली जाती हैं। मैं और तू कामचलाऊ शब्द हैं। 173
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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