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________________ एस धम्मो सनंतनो मृत्यु की घटना भी यह नहीं बताती कि कोई मरना चाहता है। लोग मरने की धमकी देते हैं, वह भी जीने की आकांक्षा में। लोग जीने के लिए इतने आतुर हैं कि मरने तक को राजी हो जाते हैं। मगर इससे जीवेषणा में कोई फर्क नहीं पड़ता। इसीलिए तो तुम देखो, राह के किनारे कोई भीख मांग रहा है-टांगें कटी हैं, हाथ टूटे हैं, आंखें अंधी हैं, शरीर कोढ़ से भरा है, सड़ गया है-कभी-कभी तुम्हारे मन में विचार उठता होगा, यह आदमी किसलिए जीना चाहता है? ऐसा जीने योग्य क्या है ? सिर्फ रोज भीख मांगने के लिए जीना चाहता है? रोज-रोज दिन खराब होते जाएंगे, असमय और बढ़ेगा, आशा भी तो क्या है? सब तो खो ही चुका है। बस यह रोज घिसटने के लिए सड़क पर, भीख मांगने के लिए जी रहा है? इसके जीवन में क्या संभावना है अन्यथा होने की? दस साल जी लेगा, तो घिसट-घिसटकर भीख मांग लेगा। रोज रोएगा, तड़फेगा, चिल्लाएगा, चीखेगा। और रोज हालत खराब होती जाएगी। एक दिन मर जाना है। मौत ही है भविष्य में। फिर किस आशा में जी रहा है? लेकिन तुम भूलकर किसी भिखारी को यह पूछना मत, क्योंकि इससे कोई संबंध ही नहीं है। आदमी की जीवेषणा इतनी प्रगाढ़ है कि हर हालत में वह राजी हो जाता है। हर हालत में राजी हो जाता है। हाथ न हों तो बिना हाथ के राजी हो जाता है, आंख न हों तो बिना आंख के राजी हो जाता है, पैर न हों तो बिना पैर के राजी हो जाता है, प्रेम न हो तो बिना प्रेम के राजी हो जाता है, मकान न हो तो बिना मकान के, सड़क तो सड़क सही। आदमी की समायोजित होने की संभावनाएं अनंत हैं। वह हर हालत में राजी हो जाता है; बस तुम उसे जीने दो। जैसे जीना अपने आप में ही लक्ष्य है। इतनी प्रगाढ़ जो जीवन की आकांक्षा है—मनुष्यों में ही नहीं, पशुओं में, पौधों में, सब तरफ जीवन की तलाश चल रही है। पशु खोज में लगे हैं। पौधे अपनी जड़ों को भेज रहे हैं जमीन में, पानी की खोज कर रहे हैं-कहां भोजन? कहां पानी? सब तरफ जीवन की आकांक्षा है। बुद्ध कहते हैं, जहां इतने जीवन की आकांक्षा है, कोई मरना नहीं चाहता, वहां तुम कम से कम एक काम करो, किसी को मारना मत। वहां कम से कम तुम इतना काम करो कि किसी को दुख मत देना। इतना तो करो। सुख की बात छोड़ो, तुम दुख मत देना। और यह मेरा अनुभव है कि अगर तुम सच में ही लोगों को दुख न दो, तो तुम सख देने लगोगे। क्योंकि जीवन कुछ ऐसा है कि जो दुख नहीं देता वह सुख देने लगता है। देना तो होगा ही, बांटना तो होगा ही। कोई अपनी जीवन संपदा को भीतर बांधकर थोड़े ही रख सकता है? बंटती है, बिखरती है, फैलती है। तुम अगर दुख न दोगे तो सुख दोगे। अगर तुमने गालियां न दी, तो तुम आज 172
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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