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आज बनकर जी!
नर्क खड़ा हो जाता है। इतना प्रगाढ़ सत्य भी हमें दिखायी नहीं पड़ता-हमारा अंधापन बहुत गहरा होगा।
बुद्धपुरुष इतना ही कहते हैं : अपने भीतर ठीक से देखो, तुमने सबके भीतर देख लिया। आत्मा को पहचान लिया तो परमात्मा को पहचान लिया। स्व को जान लिया तो सब को जान लिया। उस एक के जान लेने से सब जान लिया जाता है। फिर उस जानने के विपरीत मत चलो। ___ यहीं गहरे प्रश्न उठते हैं। यह तो तुम्हें भी पता है, दूसरे भी सुख चाहते हैं जैसा तुम चाहते हो। लेकिन फिर भी तुम इस नियम के अनुकूल नहीं चलते। तुम सोचने लगते हो कि मेरे सुख के लिए अगर दूसरे को दुख भी देना पड़े तो दूंगा। दूसरा भी सुख चाहता है, उतना ही जितना तुम चाहते हो। लेकिन तुम अपने लिए अलग नियम बनाने लगे। अब तुम कहते हो मेरे सुख में तो चाहे सारे संसार को दुख मिले, तो भी मैं अपना सुख चाहूंगा। ___इसका अर्थ हुआ कि तुम स्वभाव के प्रतिकूल चलने लगे। तुम दूसरे को दुख दोगे, अपने सुख के लिए। लेकिन तुम्हारा होना और दूसरे का होना अलग-अलग नहीं है। दूसरे को दुख देने में तुम अपने ही दुख का इंतजाम कर लोगे। गड्डा किसी
और के लिए खोदोगे, एक दिन खुद को गिरा हुआ पाओगे। क्योंकि वह दूसरा तुमसे पार, दूर, भिन्न नहीं है। तुमसे जड़ा है, संयुक्त है।
तुमने दूसरे को चोट पहुंचायी है तो चोट तुम्हीं को लगेगी। तुम छोटे बच्चों की तरह व्यवहार कर रहे हो। छोटे बच्चे को टेबल का धक्का लग जाता है। वह गस्से में आकर एक चांटा टेबल को मार देता है। उसका तर्क साफ है कि इस टेबल ने गड़बड़ की, मारो। लेकिन जब टेबल को चांटा मारा जाता है, तो अपने ही हाथ को चोट लगती है। तुम उस चोट को भी झेलने को राजी हो जाते हो, क्योंकि तुम सोचते हो, दूसरे को मारा, दंडित किया। जिसने दुख दिया, उसे दुख देंगे। यह तो बिलकुल तर्कपूर्ण मालूम होता है तुम्हें। • लेकिन तुम किसी को भी दुख दो, दुख तुम्हीं पर लौट आएगा। क्योंकि दूसरे
और तुम्हारे बीच में कोई दुर्ग की दीवालें नहीं हैं। एक जगह है जहां हम मिले-जुले हैं। जैसे नदी में तुमने रंग घोल दिया, तो फैल जाएगा रंग पूरी छाती पर नदी की। लहरें उसे दूर-दूर के किनारों तक पहुंचा देंगी। ऐसे ही अगर तुमने कहीं भी दुख डाला, तो दूर-दूर तक फैलने लगेगा। उस में तुम भी सम्मिलित हो। और अगर यही भूल सभी कर रहे हैं अपने को सुख देना चाहते हैं, दूसरे को दुख देना चाहते हैं तो फिर अगर संसार नर्क बन जाए तो आश्चर्य क्या! अनंत गुना दुख हो जाए तो आश्चर्य क्या!
बुद्धपुरुष यही कहते हैं, अनंत गुना सुख हो सकता है। यह सनातन नियम तुम्हारी समझ में आ जाए-जो तुम अपने लिए चाहते हो उससे अन्यथा दूसरे के
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