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________________ एस धम्मो सनंतनो सूत्र के पूर्व कुछ अत्यंत अनिवार्य बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली, समस्त बुद्धपुरुष स्वार्थ सिखाते हैं। कठिन होगा। क्योंकि स्वार्थ के हमने बड़े गलत अर्थ लिए हैं। हम जिसे स्वार्थ कहते हैं, वह तो स्वार्थ है ही नहीं। हम तो स्वार्थ के नाम पर आत्मघात ही करते हैं। हम तो अमृत के नाम पर जहर ही पीते हैं। फूलों के नाम पर हमने कांटों के अतिरिक्त और कोई संपदा इकट्ठी नहीं की। बुद्धपुरुष वही सिखाते हैं जो तुम्हारे हित में है। स्वार्थ सिखाते हैं। स्वार्थ का अर्थ होता है-स्व की नियति को पहचान लेना, स्वभाव को पहचान लेना। स्वार्थ का अर्थ होता है-स्वयं के कल्याण को पहचान लेना। ऐसे जीना कि रोज-रोज सुख महासुख बनता चले। ___ स्वयं के अनुकूल जो जीएगा, सुख में जीएगा। स्वयं के प्रतिकूल जो जीएगा, वह दुख में जीएगा। दुख की तुम इसे परिभाषा समझो। अगर जीवन में दुख हो, तो जानना कि तुम स्वभाव के प्रतिकूल जी रहे हो। दुख केवल सूचक है। दुख केवल खबर देता है कि कहीं कुछ भूल हो रही है। तुम धर्म के अनुकूल नहीं हो, वहीं दुख होता है। जहां तुम धर्म के अनुकूल हो, वहीं सुख होता है। एस धम्मो सनंतनो। यही सनातन नियम है। ___ इसलिए मैं तुमसे फिर कहता हूं, बुद्धपुरुष स्वार्थ सिखाते हैं, स्व का अर्थ सिखाते हैं, स्व की नियति सिखाते हैं, स्व की पहचान सिखाते हैं। और जिस दिन तुम स्वयं को समझ लेते हो, उस दिन तुमने सबको समझ लिया। क्योंकि जो तुम्हारा स्वभाव है, वही सबका स्वभाव है। रूप-रंग के होंगे भेद, स्वभाव में भेद नहीं है। जो मेरा स्वभाव है, वही तुम्हारा स्वभाव है। जो तुम्हारा स्वभाव है, वही आकाश में उड़ते पक्षी का स्वभाव है। जो तुम्हारा स्वभाव है, वही वृक्ष का, वही चट्टान का स्वभाव है। भेद रंग-रूप के हैं, ऊपर-ऊपर हैं, आकृति के हैं। लेकिन आकृति में जिसने आवास किया है, उसका कोई भेद नहीं है। __ स्वभाव एक है, यह दूसरी बात समझ लो। जिसने स्व को पहचाना, उसने तत्क्षण यह भी पहचाना कि स्वभाव एक है। वहां अपना और पराया नहीं है कोई। जो तुम चाहते हो, वही तो सभी चाहते हैं। हम कितने अंधे न होंगे कि इतना प्रगाढ़ सत्य भी दिखायी नहीं पड़ता! तुम सुख चाहते हो, सभी सुख चाहते हैं। तुम दुख से बचना चाहते हो, सभी दुख से बचना चाहते हैं। छोटी से छोटी कीड़ी भी दुख से बचना चाहती है, उसी तरह जैसे तुम बचना चाहते हो। जमीन में धंसा हुआ, खड़ा हुआ वृक्ष भी सुख की वैसी ही आकांक्षा करता है, जैसी तुम करते हो। प्यासा होता है, भूखा होता है, तड़फता है। प्रफुल्लित होता है, तृप्त होता है, तब गीत गाता है। पक्षी भी नाचते हैं, पक्षी भी कुम्हलाते हैं। जहां सुख की वर्षा हो जाती है, नृत्य हो जाता है। जहां सुख छिन जाता है, वहीं दुख और 162
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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