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________________ अकेलेपन की गहन प्रतीति है मुक्ति को खोलकर बैठे हैं—कोई आएगा, कोई आएगा। कभी कोई आया नहीं। कभी कोई आने को नहीं है। हमारा होना ही हमारा एकमात्र होना है। लेकिन दीया जलाया है, राह देखे चले जाते हैं। संसारी मन प्रतीक्षातुर मन है : कुछ न कुछ होकर रहेगा। कुछ न कुछ जरूर होगा। जैसे हमारा होना काफी नहीं है, कुछ और हो तभी हमें सुख मिलेगा। लेकिन जब यह सब प्रतीक्षा व्यर्थ हो जाएगी, यह बात व्यर्थ हो जाएगी, तुम समझ लोगे-कोई न कभी आता है, न कभी कोई जाता है, तुम अकेले हो, तुम्हारा होना आत्यंतिक है, आखिरी है; इससे ऊपर होने की कोई जगह भी नहीं है, कोई संभावना भी नहीं है; इससे ऊपर पाने का कोई उपाय भी नहीं है, पाने की जरूरत भी नहीं है, पाने योग्य भी नहीं है; तुम्हारा होना परमसुख है-वैसी हालत में तुम बुझा दोगे दीया, द्वार अटका दोगे, आंख बंद कर लोगे। इसको ही हमने ध्यान कहा है। फिर कोई आया दिले-जार नहीं, कोई नहीं अभी तो ऐसा है कि हम चौंक-चौंक उठते हैं। पत्ता भी खड़के, फिर आंख खोल लेते हैं-कोई आया? राह से कोई गुजरता है, हम जल्दी से दरवाजे पर आ जाते हैं-कोई आया? __ तुमने कभी प्रतीक्षातुर अवस्था का निरीक्षण किया? जब तुम किसी की राह देखते हो, तो हर चीज उसी के आने की खबर देती मालूम होती है। तुम राह देख रहे हो, कोई मित्र आने वाला है; पोस्टमैन आया, भागे-शायद आ गया हो। एक कुत्ता ही राह पर आ गया था, सीढ़ियां चढ़ रहा था, आवाज हुई, भागे-शायद आ गया हो। हवा का झोंका ही चला आया था, कुछ सूखे पत्ते उड़ा लाया था—भागे। फिर कोई आया दिले-जार नहीं, कोई नहीं राहरौ होगा, कहीं और चला जाएगा रास्ते की आवाज है। ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का गुबार लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चिराग सो गयी रास्ता तक-तक के हर एक राहगुजार अजनबी खाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग गुल करो शम्मएं बुझाओ दीए। 157
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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