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एस धम्मो सनंतनो
पाओगे, तुम आश्रव की भाषा समझोगे, तुम अनाव की भाषा न समझोगे-आंखें देखती थीं, लेकिन देखने की अब कोई उत्सुकता नहीं।
तुमने कभी खाली आंखों से देखा? आंखें देखती हैं, लेकिन देखने की कोई वासना नहीं है। आंखें देखती हैं, क्योंकि देखना उनका गुणधर्म है। लेकिन देखने के पीछे कोई खयाल नहीं है। तो चीज गुजर जाती है, भीतर कुछ भी नहीं जाता। दर्पण की तरह तुम रहते हो। चित्र बना, आदमी गुजर गया, दर्पण खाली था खाली हो गया। फिर कुछ और आया, चित्र बना, गया।
अनाश्रव का अर्थ है, दर्पण की भांति। आश्रव का अर्थ है, फोटो की फिल्म की भांति। कैमरे का दरवाजा जरा सा खुलता है-क्षणभर को भी नहीं, क्षणभर के एक हजारवें हिस्से को खुलता है-उतने में ही आश्रव हो जाता है। उतने में ही फिल्म ने चित्र पकड़ लिया। दर्पण खुला रहता है-खुला ही रखा रहता है—संदियां बीत जाती हैं, कुछ भी पकड़ता नहीं। चित्त की ऐसी दर्पण जैसी अवस्था का नाम अनाश्रव है।
जब तक तुम्हारे मन में वासना है तब तक तुम पकड़ते ही रहोगे। जब तुम वासना को समझोगे, उसकी व्यर्थता को समझोगे, उससे मिले दुख का अनुभव करोगे, तब किवाड़ खुले भी रहें या बंद भी रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। कल मैं एक गीत पढ़ रहा था
फिर कोई आया दिले-जार नहीं, कोई नहीं राहरौ होगा, कहीं और चला जाएगा ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का गुबार लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चिराग सो गयी रास्ता तक-तक के हर इक राहगुजार अजनबी खाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग गुल करो शम्मएं बढ़ा दो मय-ओ-मीना-ओ-अयाग अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो .
अब यहां कोई नहीं आएगा साधारणतः आदमी ऐसा है। द्वार-दरवाजे पर बैठा है और प्रतीक्षा कर रहा है, कोई आता है कोई सुख, कोई आनंद, कोई रस, कोई अनुभव, कोई धन, कोई संपदा, कोई यश-कोई आता है। हम चौबीस घंटे चारों दिशाओं में अपने दरवाजे
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