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________________ अकेलेपन की गहन प्रतीति है मुक्ति तुमने खयाल किया, किसी को सुखी देखकर तुम कभी सुखी हुए? कोई बड़ा मकान बना लेता है, तब तुम्हें कोई सुख नहीं होता। लेकिन किसी के मकान में आग लग जाती है, तब तुम बड़े दुखी होते हो।। यह थोड़ा विचारने जैसा है कि जिसको दूसरे का बड़ा मकान देखकर सुख न हुआ था, उसे उसके मकान में आग लगी देखकर दुख होगा क्यों? दुख हो कैसे सकता है? यह तो सारी सरणी गलत हो गयी। हां, अगर उसके बड़े मकान को बनते देखकर सुख हुआ था, तो आग लगी देखकर दुख होगा। लेकिन बड़ा मकान जब बना था, तब तो तुम दुखी हुए थे। सुख नहीं हुआ था। तुम जार-जार हो गए थे, तार-तार हो गए थे। तुम्हारी छाती में गोली लग गयी थी। तुम्हारी कमर झुक गयी थी उस दिन, तुम बूढ़े हो गए थे उस बड़े मकान को देखकर। एक पराजय साफ लिख गयी थी खुले आकाश में यह मकान तुम्हारा होना था और नहीं हो पाया और कोई और बना ले गया। बाजी कोई और ले गया। वह पराजय की स्पष्ट कथा थी। फिर जब इस घर में आग लग जाती है तब तुम दुखी कैसे हो सकते हो? नहीं, तुम दुख दिखाते हो। होते तुम सुखी हो। भीतर बड़ा रस आता है। मन तो यही कहता है कि पाप का फल है। किया था, भोगा! अब कोई ब्लैक-मार्केट करे, चोरी-रिश्वत करे और बड़ा मकान बना ले! देर है, अंधेर थोड़े ही है! अब देख लिया! यह तो भीतर होता है। बाहर से जाकर तुम जार-जार आंसू बहाते हो। यह मौका तम नहीं छोड़ सकते। बड़ा मकान न बना पाए, लेकिन बड़े मकान बनाने वाले आदमी को नीचा दिखाने का अवसर तो मिला-मकान में आग लग गयी। ध्यान रखना, धार्मिक आदमी वह नहीं है जो दूसरे के दुख में सहानुभूति बताता है। धार्मिक आदमी वह है जो दूसरे के सुख में सुख अनुभव करता है। ___ और जिसने दूसरे के सुख में सुख अनुभव किया, उसकी सहानुभूति हीरे जैसी है। उसकी दुख में सहानुभूति अर्थ रखती है। और जिसने सुख में ईर्ष्या अनुभव की, उसकी सहानुभूति तो ऊपर-ऊपर मलहम-पट्टी है। भीतर-भीतर आग है। सहानुभूति के धोखे में मत पड़ना। तुमसे लोगों ने कहा है, दूसरों के दुख में दुखी होओ। मैं तुमसे कहता हूं, दूसरों के सुख में सुखी होओ। दूसरों के दुख में दुखी होना! तुम वैसे ही दुखी काफी हो, अब और दुखी होना! तुम दूसरों के सुख में सुखी होओ। सुख सीखो। अपने सुख में तो सुखी होओ ही, दूसरे के सुख में भी सुखी होओ। सुख की आदत बनाओ। और जैसे-जैसे आदत घनी होगी, और बड़ा-बड़ा सुख आएगा। ___ कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था कि एक आदमी अपने मनोवैज्ञानिक के पास गया। वह बड़ा घबड़ाया हुआ, बड़ा बेचैन था। और मनोवैज्ञानिक ने पूछा, क्या परेशानी है, इतने क्यों पसीने से तरबतर, इतने क्यों बेचैन, इतने क्यों हांफ रहे हो? 143
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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