SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अकेलेपन की गहन प्रतीति है मुक्ति अब मैं क्या तुमसे अपना हाल कहूं बाखुदा याद भी नहीं मुझको जिंदगानी का आसरा है यही दर्द मिट जाएगा तो क्या होगा लोग बीमारियों के सहारे जीने लगते हैं। लोग दुखों की संपदा बना लेते हैं। लोग अपनी पीड़ाओं को तिजोरियों में सम्हालकर रख लेते हैं। निकाल-निकालकर बार-बार अपने घावों को देख लेते हैं। उघाड़-उघाड़कर फिर-फिर सहला लेते हैं। फिर-फिर हरे कर लेते हैं। कुछ है तो। खाली हाथ तो नहीं। रिक्त तो नहीं। सूने तो नहीं। कुछ भराव तो है। तुम इस पर थोड़ा सोचना। कहीं तुमने अपने दुखों के साथ बहुत ज्यादा रिश्ता तो नहीं बना लिया? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम रुग्ण-रस लेने लगे? अगर तुम विचार करोगे, थोड़ा ध्यान करोगे, तुम पाओगे कि तुमने अपनी बीमारी में भी नियोजन कर दिया संपत्ति का। अब तुम बीमारी के कारण भी महत्वपूर्ण हो गए हो। - मैं एक विश्वविद्यालय में शिक्षक था। एक महिला मेरे साथ शिक्षक थी। उनके पति ने एक दिन मुझे फोन किया और कहा कि मैंने सुना है कि मेरी पत्नी आपका सत्संग करती है। आप जरा खयाल रखना, वह बीमारी बढ़ा-चढ़ाकर बताती है। जरा सा फोड़ा हो, तो वह कैंसर बताती है। तो आप फिजूल उसके पीछे परेशान मत होना। क्योंकि मैं बीस साल के अनुभव से कह रहा हूं। शक तो मुझे भी होता था उस महिला की बातों से। लेकिन वह न केवल दूसरे को ही धोखा देती थी, जैसे खुद भी धोखा खाती थी। छोटी-मोटी बात को, दुख को, खूब बड़ा करके बताती। क्या कारण रहा होगा? उसने जीवन में कभी प्रेम नहीं जाना। तो दुख को बड़ा करके जो थोड़ी सी सहानुभूति मिल जाती, उसी से तृप्ति कर रही थी। पहले पति के साथ यही संबंध रहा होगा-दुख बढ़ा-बढ़ाकर बताया। फिर पति समझ गया। कितने देर चलेगा यह? तो पति से नाता ढीला हो गया। फिर वह इधर-उधर सत्संग करने लगी। जहां भी कोई मिल जाए सहानुभूति देने वाला, वहीं वह अपने दुख! गौर से देखा तो पता चला कि वह अपने दुख को बड़े सम्हाल-सम्हालकर रखती है। और एक-एक दुख को लुत्फ ले-लेकर कहती। जैसे दुख कोई कविता हो, कि कोई नृत्य हो। अगर उसके दुख को गौर से न सुनो, तो वह नाराज हो जाती। अगर दुख में सहानुभूति न बताओ, तो वह तुम्हारे विपरीत हो जाती। अगर दुख में सहानुभूति बताओ, वह जितना दुख कहे उससे भी बढ़ा-चढ़ाकर मान लो, तो वह चरणों पर झुकने को राजी। तुम जरा अपने भीतर भी इस महिला को खोजना। सभी के भीतर है। दुख में रस मत लेना, क्योंकि रस अगर तुम लोगे, तो कौन तुम्हें दुख की तरफ 141
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy