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________________ अकेलेपन की गहन प्रतीति है मुक्ति तुम्हें गुहा में, गुफा में बंद कर दिया जाए तो भी तुम बैठकर भीड़ को मौजूद कर लोगे। पत्नी से बातें करोगे, पति से बातें करोगे, मित्रों से बातें करोगे, झगड़े करोगे। अकेले तुम रह नहीं सकते।। किसी तरह संसार से घबड़ा जाते हो एक दिन, तो फिर तुम दूसरा संसार बना लेते हो, जिसको तुम धर्म कहते। फिर तुम मंदिर चले जाते हो, तुम पत्थर की मूर्ति से बातें करते हो। हद्द का धोखा है। - पहले भी तुमने मूर्तियां चुनी थीं। कम से कम जीवित थीं। कम से कम धोखे में भी थोड़ी सचाई थी। तुम्हारी पत्नी तुम्हारे परमात्मा से कम से कम ज्यादा जीवित थी। उसके जीवित होने के कारण ही अड़चन पड़ी। तुमने जो चाहा, उसने न किया। तुमने जैसा चाहा, वैसी वह सिद्ध न हुई। उसके यथार्थ ने तुम्हारी कल्पना को ठहरने न दिया, तोड़-तोड़ डाला। तुमने तो सीता-सावित्री चाही थी। वे सब तुम्हारी कल्पनाएं हैं सीता और सावित्रियां। वे तुम्हारी पुराण-कथाएं हैं। पुरुष ने जैसी पत्नियां चाही हैं, उनके केवल सपने हैं। सीता साबित न हो सकी, क्योंकि उस तरफ भी एक जीवित स्त्री थी, किसी कथा का पात्र नहीं। तुमने तो सब तरह से अपने को भुलाने की कोशिश की, लेकिन उसके यथार्थ ने तुम्हारी कल्पना को तोड़-तोड़ दिया, झकझोर-झकझोर दिया। आखिर तुम घबड़ा गए। अब तुम मंदिर आ गए। अब तुमने एक पत्थर की मूर्ति से अपना संबंध जोड़ा। यह मूर्ति तुम्हारी कल्पना को तोड़ भी न सकेगी। यह मूर्ति बिलकुल ही नहीं है। तुम इस पर बांसुरी रख दोगे इसके ओंठों पर, तो यह उतारकर नीचे न रख सकेगी। तुम इसे नचाओगे तो मूर्ति नाचेगी। तुम बिठाओगे तो बैठेगी। तुम राम बनाओगे तो राम बनेगी, तुम कृष्ण बनाओगे तो कृष्ण बनेगी। यह केवल तुम्हारा ही जाल है। अब यह मूर्ति तुमने खोज ली, यह तुम्हारा ही, जैसा मदारी का बंदर होता है, ऐसे तुम्हारा यह बंदर है। तुम जैसा नचाओ यह नचेगी। और मजा यह है कि तुम इस बंदर से प्रार्थना करोगे और तुम कहोगे कि मुझे ठीक से नचा। यह बंदर तुम्हारा, यह कल्पना तुम्हारी, यह सपना तुम्हारा, अब तुमने बड़ा गहरा धोखा देने की आयोजना की। तुमने पाप किया तो तुम इसको कहते हो, तुम पतितपावन हो। तुमने अपराध किया, तो तुम महा करुणावान हो। तुम अंधेरे में भटक रहे हो, तो परमात्मा प्रकाश है। तुम जो हो, ठीक तुम उससे विपरीत परमात्मा बनाते हो। तुम जो चाहते हो, वह तुम परमात्मा में आरोपित कर लेते हो। यह परमात्मा तुम्हारी कल्पना का विस्तार, प्रक्षेपण है। बुद्ध कहते हैं, संसार में भी तुम दूसरे को पकड़े रहे, अब फिर तुमने दूसरे को पकड़ लिया। तुम स्व कब होओगे? तुम स्वयं कब बनोगे? अप्प दीपो भव! तुम अपने दीए खुद कब बनोगे? तुम कब कहोगे कि दूसरा नहीं है, मैं ही हूं और मुझे जो भी करना है इस मैं से ही करना है-नर्क बनाना है तो भी स्व से ही बनाना है, 135
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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