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जीवन-मृत्यु से पार है अमृत
कहा, मुझे कैसे पता हो कि वह वेश्या है या नहीं है ? फिर इससे मुझे प्रयोजन क्या? उसने निमंत्रण दिया है, आपकी आज्ञा हो तो चार महीने उसके घर वर्षाकाल निवास करूं। आपकी आज्ञा न हो तो बात समाप्त हो गयी।
और बुद्ध ने आज्ञा दी कि तू वर्षाकाल उसके घर बिता। आग लग गयी और भिक्षुओं में। उन्होंने कहा, यह अन्याय है। यह भ्रष्ट हो जाएगा। फिर तो हमें भी इसी तरह की आज्ञा चाहिए। बुद्ध ने कहा, इसने आज्ञा मांगी नहीं है, मुझ पर छोड़ी है। इसने कहा नहीं है कि चाहिए। और मैं इसे जानता हूं। चार महीने बाद सोचेंगे। जाने भी दो। अगर वेश्या इसके संन्यास को डुबा ले, तो संन्यास किसी काम का ही न था। अगर यह वेश्या को उबार लाए, तो ही संन्यास का कोई मूल्य है। तुम्हारे संन्यास की नाव में अगर एक वेश्या भी यात्रा न कर सके, तो क्या मूल्य है!
वह भिक्षु वेश्या के घर चार महीने रहा। चार महीने बाद आया तो वेश्या भी पीछे चली आयी। उसने दीक्षा ली, वह संन्यस्त हुई। बुद्ध ने पूछा, तुझे किस बात ने प्रभावित किया? उस वेश्या ने कहा, आपके भिक्षु के सतत अप्रभावित रहने ने। आपका भिक्षु किसी चीज से प्रभावित होता ही नहीं मालूम पड़ता। जो मैंने कहा, उसने स्वीकार किया। संगीत सुनने को कहा, तो सुनने को राजी। नृत्य देखने को कहा, तो नृत्य देखने को राजी। जैसे कोई चीज उसे छूती नहीं।
भीतर घाव न हो तो कोई चीज छूती नहीं। ____ अगर तुमने धर्म को स्थान-परिवर्तन समझा-वेश्या का मुहल्ला छोड़ दिया, क्योंकि डर है; बाजार छोड़ दिया, क्योंकि धन में लोभ है; भाग खड़े हुए हिमालय पर तो माना परिस्थितियों से तो हट जाओगे, घावों का क्या करोगे? चोट तो न लगेगी घाव पर, सच। ठीक। जहर से तो हट जाओगे, लेकिन घाव का क्या करोगे? घाव तो बना ही रहेगा। भीतर ही भीतर रिसता ही रहेगा। प्रतीक्षा करेगा। कभी भी जब भी अवसर आएगा जहर को फिर छूने का, घाव फिर विषाक्त हो जाएगा।
बुद्ध का जोर है, कृष्ण का जोर है, घाव को भर लो। तुम्हारे भीतर घाव न हो, तुम छिद्र मुक्त हो जाओ, फिर जहां भी हो, रहो। फिर नर्क भी तुम्हारे लिए नर्क नहीं, और संसार भी तुम्हारे लिए निर्वाण है।
बिना ध्यान के क्रिया अधूरी बन पाती अनिमेष नहीं अंतरमुख होते ही सन्मुख रह जाता परिवेश नहीं वही साध्य तक पहुंचा, रहते जो शरीर, अशरीर हुआ अंतरमुख होते ही सन्मुख रह जाता परिवेश नहीं
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