________________
सुख या दुख तुम्हारा ही निर्णय
न अपने दिल की लगी बुझा यूं न कर जहन्नुम का तजकिरा यूं संभाल अपने बयां को वाइज!
कि आंच आने लगी खुदा पर अगर तुम धर्मगुरु की भाषा सुनो, तो वह कोई धर्म की भाषा नहीं है। वह तो नर्क का ऐसा वर्णन करने लगता है कि उसकी बात सुनकर तुमको लगेगा कि वह रस ले रहा है। ऐसा लगेगा कि भेजने के लिए बड़ा उत्सुक है। चाहता है कि भेज ही दे। उसकी आंखों में चमक, उसके चेहरे पर उत्तेजना मालूम होगी।
न अपने दिल की लगी बुझा यूं
न कर जहन्नुम का तजकिरा यूं __ऐसा लगता है कि दिल की लगी बुझा रहा है। जो खुद करना चाहता था, नहीं कर पाया, जिन्होंने किया है, उनको नर्क में डालने का मजा ले रहा है। आग में सड़ा रहा है।
___ न कर जहन्नुम का तजकिरा यूं
इस तरह जहन्नुम का वर्णन कर रहा है रस ले-लेकर, चटकारे ले-लेकर कि लगता है दिल की लगी बुझा रहा है।
सम्हाल अपने बयां को वाइज! हे धर्मगुरु! अपने वक्तव्य को थोड़ा सम्हाल।
कि आंच आने लगी खुदा पर कि तेरे इस नर्क की आंच तो अब खुदा तक पहुंचने लगी, आदमियों की तो बात और। यह तेरी नर्क की लपटें तो अब जीवन के परम सत्य को भी कुम्हलाने लगीं।
एक बात खयाल में रखना, नर्क और स्वर्ग, जो नहीं समझते, उनके लिए पुरस्कार और दंड की कल्पनाएं हैं। पाप और पुण्य, जो नहीं समझते, उनके लिए की गयी व्याख्याएं हैं। जो जागता है, समझता है। न फिर कोई पाप है, न फिर कोई पुण्य है। न कोई स्वर्ग है, न कोई नर्क है। जीवन ही सब है।
और जो समझता है, उसकी समझ काफी है। समझ के ऊपर कोई और शास्त्र नहीं। समझ आखिरी सिद्धांत है। हां, जब तक न समझा हो, तब तक दूसरे जो बताएं उनके आधार पर चलना ही होगा। आंख न खुली हो तो टटोलना ही होगा। आंख बंद हो तो हाथ में छड़ी लेकर रास्ता खोजना होगा।
सारे रीति-नियम अंधे के टटोलने जैसे हैं। आंख खुल जाए, फिर कोई रीति-नियम की जरूरत नहीं है। फिर सब मर्यादाओं से व्यक्ति मुक्त हो जाता है। अमर्याद है चैतन्य। और उसी अमर्याद चैतन्य में से सारी मर्यादाएं अपने आप निकलती हैं। स्वतंत्रता है परम, लेकिन स्वच्छंदता नहीं है।
खयाल रहे, रीति-नियम तब तक जरूरी हैं जब तक तुम्हारा ध्यान नहीं जगा।
103