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एस धम्मो सनंतनो
यह नमाजे-सहने-हरम नहीं यह सलाते-कूचा-ए-इश्क है न दुआ का होश सजूद में न अदब की शर्त नमाज में जो खड़े हैं आलमे-गौर में वो खड़े हैं आलमे-गौर में जो झुके हैं नमाज में वो झुके हैं नमाज में
यह नमाजे-सहने-हरम नहीं। यह जो परम जीवन के मूल्य की मैं बात कर रहा हूं, यह मस्जिद में पढ़ी जाने वाली नमाज नहीं, यह मंदिर में की जाने वाली पूजा नहीं।
यह सलाते-कूचा-ए-इश्क है यह तो प्रेम की गली की नमाज है।
एक तो नमाज है जो मस्जिद में पढ़ी जाती है। उसका सलीका है, उसका ढंग है, व्यवस्था है, रीति-नियम हैं। फिर एक नमाज है जो प्रेम की गली में पढ़ी जाती है। उसका कोई शास्त्र नहीं है। वह स्वतंत्र है। वह सहज-स्फूर्त है।
न दुआ का होश सजूद में न अदब की शर्त नमाज में वह जो प्रेम की गली में पढ़ा जाता है प्रार्थना का सूत्र, वह जो प्रेम की गली में की जाती है पूजा और अर्चना, वहां न तो याद रहता कौन सी प्रार्थना कहें, कौन सी न कहें; प्रार्थना कहें भी कि न कहें, यह भी याद नहीं रहता। न कोई शिष्टाचार की शर्त रह जाती है।
न दुआ का होश सजूद में न अदब की शर्त नमाज में
जो खडे हैं आलमे-गौर में वो खडे हैं आलमे-गौर में , कोई खड़ा ही रह जाता है उस परमात्मा के रस में डूबा! ___ जो खड़े हैं आलमे-गौर में वो खड़े हैं आलमे-गौर में
जो झुके हैं नमाज में वो झुके हैं नमाज में कोई झुकता है तो झुका ही रह जाता है। न कोई अदब है, न कोई शिष्टाचार है, न कोई रीति-नियम है।
लेकिन वह आखिरी बात है। जब तक वह न हो, तब तक सामयिक रीति-नियम को मानकर आदमी को चलना पड़ता है। जब तक तुम्हारे जीवन में वैसी नमाज न आ जाए कि खड़े हैं तो पता नहीं खड़े हैं, झुके हैं तो पता नहीं झुके हैं; जब तक तुम्हारे जीवन में वैसी प्रार्थना न आ जाए कि जहां गूंज गयी प्रार्थना वहीं मंदिर हो गया प्रभु का, तब तक तो कहीं न कहीं मंदिर तलाशना होगा, कहीं मस्जिद खोजनी होगी। जब तक तुम्हारे जीवन में जीवन का परम शाश्वत मूल्य बरसे न, तब तक अहिंसा, दया, करुणा, प्रेम, इन नियमों को मानकर चलते रहना होगा। ये ऊपरी आवरण हैं। ये तुम्हें तैयार करेंगे उस परम घटना के लिए। जब वह घट जाएगी, तब इस कूड़े-कर्कट को फेंक देना। जब वह घट जाए, तब फिर किसी रीति-नियम की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
मला।
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