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________________ सुख या दुख तुम्हारा ही निर्णय ठीक हैं, अब तो सवाल यह हो गया कि गांधी की जिंदगी बचानी है। अंबेडकर बहुत चिल्ला-चिल्लाकर कहता रहा कि यह तो बात ही नहीं है। बात तो यह है कि जो मैं कह रहा हूं वह ठीक है, या गांधी जो कह रहे हैं वह ठीक है। पर लोगों ने कहा, यह पीछे सोच लेंगे, अभी तो जान का सवाल है। अभी तो गांधी की जान बचानी है। आखिर में अंबेडकर को भी नींद हराम होने लगी, उसे भी लगा कि यह बूढ़ा मर जाएगा तो सदा के लिए कलंक मेरे सिर लग जाएगा कि मैं नाहक जिद्द किया, अपराधी-भाव अनुभव होने लगा। यह बहुत पुरानी तरकीब है स्त्रैण। इसमें कुछ भी गौरवपूर्ण नहीं है। यह हिंसा से भी बदतर है। क्योंकि हिंसा में कम से कम दूसरे को तुम सुरक्षा का, लड़ने का मौका तो देते हो, इसमें तो तुम मौका ही नहीं देते। इसमें तो तुम दूसरे को बिलकुल असहाय कर देते हो। दूसरे से सब छीन लेते हो उसकी सामर्थ्य। और तुम अपने को इतना दीन-दुखी करने लगते हो कि दूसरे के मन में अपराध की भावना गहन होने लगती है। अपराध की भावना के कारण वह झुक जाता है। तो जिस स्त्री ने तुम्हें दुख के कारण झुका लिया कि मैं दुखी रहूंगी अगर तुमने शादी न की—तुम हिंसा के सामने झुक गए। यह हिंसा अहिंसात्मक मालूम होती है, है नहीं। यह हिंसा से भी बदतर हिंसा है। क्योंकि इसमें दूसरे को बड़े सूक्ष्म और चालाक उपायों से दबाने की व्यवस्था है। ___अब तुम शादी के बाद सोच रहे हो वह प्रसन्न हो जाए। अब तो वह प्रसन्न नहीं हो सकती। उसने तुम्हें झुकाया, उसका तकनीक काम कर गया, उसका सत्याग्रह काम कर गया। अब तो यह सत्याग्रह छोड़ा नहीं जा सकता। अब तुम लाख कहो, अब तो उसने एक तरकीब सीख ली तुम पर सत्ता चलाने की। विवाह तुम नहीं करना चाहते थे, वह भी करवा लिया। अब तो तुमसे कुछ भी करवाया जा सकता है। जो भी तुम नहीं करना चाहते, वह भी करवाया जा सकता है, क्योंकि नहीं तो वह दुखी रहेगी। दुख में बड़ा नियोजन हो गया, स्वार्थ हो गया, निहित स्वार्थ हो गया। इससे कुछ उसके जीवन में लाभ नहीं होगा। उसका सारा जीवन दुख में बीत जाएगा। और तुमने दुख के लिए झुककर कोई उसका उद्धार नहीं किया, उसके सारे जीवन को नर्क में पड़े रहने के लिए मजबूर कर दिया। इसलिए मैं कहता हूं, उद्धारक मत बनना। और भूलकर भी किसी भी तरह की हिंसा के सामने मत झुकना, अन्यथा तुम दूसरे आदमी को गलत जीवन की दिशा पकड़ने का सहारा दे रहे हो। __ अब तुम पूछते हो, ‘उदास व्यक्ति के साथ रहना मुझे असह्य मालूम पड़ता है। पत्नी को सुखी करने के लिए मैं क्या करूं?' तुम्हारा आखिरी सवाल बताता है कि अब भी तुम्हारी बुद्धि में कोई समझ नहीं आयी। अभी भी तुम पूछते हो, पत्नी को सुखी करने के लिए मैं क्या करूं? इसी के 95
SR No.002382
Book TitleDhammapada 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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