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________________ एकला चलो रे आए हैं। दोनों विक्षिप्त हो। दो आदमियों की बातें तो सुनो गौर से सुनो, तुम हैरान होओगे। वे एक-दूसरे से बात कर ही नहीं रहे, अपनी-अपनी कहे चले जा रहे हैं। किसको फुरसत है किसी से बात करने की? अपना-अपना काफी भरा हुआ गुबार है। __तो पहली तो बात है कि एकांत में थोड़ा रस लेना शुरू करो। बुद्ध कहते हैं, पंडित वही है। __ क्यों? क्योंकि समझदार वही है, जो अपने भीतर जीने की सुविधा बनाने लगे, अपने भीतर के आकाश में रमने लगे। क्योंकि वहीं तुम्हारे प्राणों का प्राण है, वहीं तुम्हारा जीवन-स्रोत है, वहीं तुम्हारा उदगम है, वहीं तुम्हारा अंत है, वहीं है मंदिर, वहीं है विराजमान प्रभु-अगर कहीं है, वहीं सब कुछ है। उसको जिसने गंवाया, सब गंवाया। उसे जिसने पाया, सब पाया। 'और बेघर होकर...।' जैसे भीड़ से हम बंधे हैं, भीड़ काम भी नहीं आती; सिर्फ भुलाने का बहाना है, एक नशा है। जिंदगी के असली क्षणों में तुम सदा अकेले रह जाते हो। जन्म जब हुआ, तुम अकेले। तुम्हारे भीतर तुम्हीं थे और कुछ नहीं। मरोगे, तब अकेले। तुम्हारे भीतर तुम्हीं रहोगे और कुछ नहीं। और कभी अगर तुम थोड़ी समझ का उपयोग करो तो जीवन में जब भी तुम्हें ऐसे कोई क्षण मिले-पुलक के, अहोभाव के, धन्यता के, तब भी तुम पाओगे, तुम अकेले। सुबह उगते सूरज के साथ क्षणभर को राग बंध गया, सूरज के रंग फैल गए-तुम अचानक पाओगे, कोई भी न रहा वहां। भीतर का आकाश एकदम खाली हो गया। वहीं सौंदर्य का थोड़ा सा रस आएगा। संगीत सुनते समय जब तुम्हारे भीतर कोई भी न रह जाएगा, विराट एकांत होगा, उसी क्षण संगीत तुम्हारी भीतर की वीणा को छु देगा; भीतर की वीणा पर टंकार पड़ जाएगी। तुम्हारी भीतर की वीणा जब तक न बजने लगे, कैसे तुम बाहर का संगीत समझोगे? और जब तक तुम्हें भीतर के सौंदर्य का बोध न हो, बाहर के सब सौंदर्य किसी काम के नहीं हैं। तो जीवन में जब भी कुछ महत्वपूर्ण घटता है, तब तुम अचानक पाओगे, तुम अकेले हो गए। तुमसे एक कठिन बात कहना चाहूंगा; अगर तुम्हारे जीवन में कभी प्रेम घटा है तो तुम अचानक पाओगे कि तुम अकेले हो गए। हालांकि प्रेम में लोग सोचते हैं कि अब दो साथ हो गए, लेकिन यह बात सच नहीं है। प्रेम में दो एकांतों का मिलन होता है। दो व्यक्ति अकेले हो जाते हैं प्रेम में। दो व्यक्ति भीड़ से मुक्त हो जाते हैं। और प्रेमी जब दो होते हैं तो वहां कोई भीड़ नहीं होती; वहां दूसरा होता ही नहीं। वहां तुम अकेले होते हो, दूसरा भी अकेला होता है। वहां अकेलापन पूरा होता है। दो शून्य मिलकर एक ही शून्य बनता है, दो शून्य नहीं बनते। दो शून्यताएं 75
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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