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________________ एस धम्मो सनंतनो शास्त्र मिलेंगे, मंदिर-मस्जिद मिलेगी, तुम भर न मिलोगे। भीतर खोजोगे तो अपने भर को न पाओगे और सारा संसार पा लोगे। कैसा मजा है! तो साधक को शुरुआत में अपने को भीड़ से बाहर करने की जरूरत है। और यह भीड़ से बाहर करना बाहर की ही बात नहीं है; तुम जंगल भी भाग सकते हो, इससे बहुत कुछ न होगा। जंगल में भी बैठ जाओगे तो सोचोगे तो बाजार की; थोड़ा ज्यादा ही सोचोगे। __अक्सर ऐसा होता है कि लोग जब ध्यान करने बैठते हैं, तब संसार की ज्यादा सोचते हैं। ऐसे भी नहीं सोचते साधारणतः उतना। मंदिर जाते हैं, तब दुकान का ज्यादा विचार करते हैं। फुरसत मिल जाती है। और कुछ काम भी नहीं रहता वहां। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ी आश्चर्य की बात है। इतने विचार तो हमें साधारण नहीं होते, लेकिन जब ध्यान करने बैठते हैं; तब बड़ा आक्रमण होता है। ध्यान विचार ही विचार से भर जाता है। बाकी समय तुम उलझे रहते हो। विचार तो चलते रहते हैं, लेकिन देखने की भी फुरसत कहां? ध्यान के समय तुम खाली होकर बैठते हो, थोड़ी नजर मुक्त होती है, उलझाव नहीं होता। सारी दुनिया झपट पड़ती मालूम पड़ती है। प्रश्न बाहर का नहीं है, लेकिन बाहर का एकांत भी सहयोगी हो सकता है। असली सवाल भीतर के एकांत का है। ‘ऐसे एकांत में वास करे कि जहां जी लगना कठिन होता है।' तुम्हारा जी ही भीड़ में लगता है। खाली बैठे हो, अखबार पढ़ोगे। अखबार यानी भीड़ की खबरें। खाली बैठे हो, रेडियो खोल लोगे, टेलीविजन चला लोगे। खाली बैठे हो तो मित्र के घर पहुंच जाओगे, क्लब पहुंच जाओगे, पड़ोसी से ही बात करने लगोगे। खाली बैठे हो तो कुछ न कुछ करोगे। बिना दूसरे के तुम्हारा जी नहीं लगता। दूसरे पर इतने निर्भर हो? दूसरा तुम्हारा मालिक है? दूसरे के बिना घड़ीभर बिताना मुश्किल हो जाता है। तुम्हारी स्वतंत्रता कैसी है ? यह तुम्हारा स्वामित्व कैसा है? तुम अपने भी नहीं हो। वही व्यक्ति अपना स्वामित्व पाना शुरू करता है, जो एकांत और निज को जीने लगता है। जो अपने साथ होने में भी आनंद पाता है। दूसरे के साथ होना ही जिसका एकमात्र सुख नहीं है, जिसका अपने साथ होना परमसुख बन जाता है। और बड़े मजे की, यद्यपि विरोधाभासी बात यह है कि जो व्यक्ति अपने साथ बहुत आनंद अनुभव करता है, दूसरे उसके साथ बड़ा आनंद पाएंगे। तुम तो अपने साथ ही परेशान हो, तुम दूसरों के साथ उनको भी परेशान ही करोगे। करोगे क्या? अपने को परेशान कर लेते हो तो दूसरों को भी परेशान करोगे। तुम उनको उबा रहे हो, वे तुमको उबा रहे हैं। वे तुम्हारी सुन रहे हैं, क्योंकि उनको अपनी कहनी है। तुम भी अपने एकांत से घबड़ाकर भाग आए हो, वे भी अपने एकांत से घबड़ाकर भाग 74
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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