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________________ एकला चलो रे कोई जीवित व्यक्ति मौजूद हो, जो तुम्हें गलत अर्थ न करने दे । कोई मौजूद हो, जो तुम्हें तुम्हारे अर्थ न करने दे; जो तुम्हें सब तरफ से जगाता रहे । तुम हजार कोशिश करो, लेकिन जो सजगता से तुम्हें देखता रहे कि तुम कहीं अपनी मूर्च्छा को पोषित तो नहीं कर रहे हो! पहली बात, उपदिष्ट हो धर्म; शास्ता से लिया जाए, शास्त्र से नहीं । शास्त्र तो शास्ताओं से बनते हैं। शास्त्रों का जन्म शास्ता में होता है । कोई, जिसने जान लिया सत्य को, उसके वक्तव्य, उसके वचन शास्त्र बनते हैं । तो जब जीवंत घटना घट रही हो, गंगा जब उतरती हो हिमालय से, तभी तुम स्नान कर लेना । तुम करोगे स्नान, लेकिन तुम बड़ी बाद करते हो, काशी में जाकर पकड़ते हो । तब तक गंगा मुर्दा हो चुकी होती है। तब तक न मालूम कितने घाट उसे विकृत कर चुके होते हैं, न मालूम कितने मुर्दे उसमें बह चुके होते हैं, लाशें सड़ चुकी होती हैं। और न मालूम कितने गांवों की जिंदगी की गंदगी और गुबार उसमें इकट्ठा हो गया होता है। जब हिमालय से उतरती हो, जब गंगोत्री में गंगा पैदा होती हो, जहां एक-एक बूंद स्वच्छ और सुंदर हो, जहां स्वर्ग से अभी-अभी आती हो ताजी, जहां आदमी की छाप न पड़ी हो, जहां आदमी के संसार की गंदगी ने उसे विकृत न किया हो, अव्यभिचारित, कुंआरी हो जहां, वहीं तुम पकड़ लेना । तुम पकड़ोगे, तुम तीर्थ बनाओगे, लेकिन तुम्हारे तीर्थ बड़े बाद में बनते हैं। . इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में जब चला गया मेहमान गया पहचाना है। तुम तभी पहचान लेना, जब मेहमान मौजूद हो । जाने के बाद पूजा से कुछ भी न होगा। तो पहली बात, उपदिष्ट धर्म - शास्ता से लिया जाए। बुद्ध के पास लोग आ जाते थे और वे वेदों की दुहाई देते थे कि वेद में ऐसा कहा है, आप ऐसा कहते हैं; उपनिषद में ऐसा कहा है, आप ऐसा कहते हैं । आदमी बड़ा दयनीय है। जहां से उपनिषद पैदा होते हैं, वह आदमी मौजूद है। जहां से वेद जन्म लिए हैं, वह आदमी मौजूद है। तुम उसके सामने वेदों की दुहाई दे रहे हो ! और तुम यह चेष्टा करते हो कि यह आदमी गलत है, क्योंकि वेद में कुछ और कहा है। और वेद में जो कहा है, वह तुमने ही अर्थ किया है। वह वेद ने नहीं कहा है, तुमने कहा है । तुम वेद को गवाह बनाकर ला रहे हो। तुम अपने पीछे वेद को खड़ा कर रहे हो। तुम्हें अपने पर भरोसा नहीं है। तुम वेद की साक्षी ले रहे हो। और तुम किससे लड़ रहे हो ? तो बुद्ध कहते, तुम अपने वेद को बदल लो। तुम अपने उपनिषद में संशोधन 65
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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