________________
एस धम्मो सनंतनो
चरणों पर गिर रहे हैं। .
पत्थर की मूर्ति के सामने झुकना कितना आसान है! क्योंकि वहां कोई है ही नहीं, जिसके सामने तुम झुक रहे हो। तुम्हारी ही मूर्ति है, तुम्हीं झुकने वाले हो। जैसे कोई अपने ही दर्पण के सामने, अपनी ही तस्वीर के सामने झुकता हो-खेल है।
परिचय करना तो है बस मिट्टी का स्वभाव चेतना रही है सदा अपरिचित ही बनकर इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में जब चला गया मेहमान गया पहचाना है इसलिए हुआ है अक्सर ही ऐसा जग में
जब चला गया मेहमान गया पहचाना है तुम इतनी देर लगा देते हो पहचानने में, परिचय ही नहीं बना पाते।
कारण है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि जब कहीं किसी व्यक्तित्व में समाधि के फूल लगते हैं तो वे इतने अपरिचित लोक के फूल हैं कि तुम्हारे फूलों से उनका कोई संबंध नहीं जुड़ता। जब वैसी सुगंध उतरती है आकाश से तो तुम्हारी सुगंधों से कहीं मेल नहीं खाती। तुम्हारा जो भी जानना है, वह सब अस्तव्यस्त हो जाता है। तुम्हारे जानने के ढांचों में तुम बुद्धों को नहीं बिठा पाते।
ढांचे तोड़ने को तुम तैयार नहीं; तुम बुद्धों को न पहचानने को तैयार भला हो जाओ। तुम चाहते हो कि बुद्ध पुरुष तुम्हारे हिसाब से हों। तुम्हारे पास बंधी लकीरें हैं, व्याख्याएं हैं। और जब भी कोई बुद्ध पुरुष होता है तो अव्याख्य! बुद्ध पुरुष से ज्यादा अजनबी आदमी तुम कहीं खोज थोड़े ही पाओगे! तुम्हारी किसी भी लकीर में बंधता नहीं-बंध नहीं सकता। तुम्हारी लकीर में जो बंध जाए, वह बुद्ध नहीं। तुम्हारी लकीर में जो बंध जाए, वह तुम्हारा अनुयायी होगा, वह तुम्हारा सदगुरु न हो पाएगा। तुम उन्हीं की पूजा करते हो, जो तुम्हारे पीछे चलते हैं।
बड़ा खेल है। बड़ा आश्चर्यजनक खेल है। और कितना अंधापन है कि हम इसको देख भी नहीं पाते।
जब अलौकिक का अवतरण होगा, जब अनिर्वचनीय उतरेगा, तो तुम्हारे सब ढांचे, तुम्हारी सारी तर्क की कोटियां व्यर्थ हो जाएंगी। तुम अवाक हो जाओगे। तुम आश्चर्यचकित, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाओगे। एक क्षण को तो तुम्हारा सारा व्यक्तित्व अस्तव्यस्त हो जाएगा, एक अराजकता पैदा हो जाएगी। बुद्ध पुरुषों के पास तुम्हारे जीवन की सारी व्यवस्था खंड-खंड हो जाएगी। तुम्हें फिर से अपने को निर्मित करना होगा। तुम्हारे कल तक बनाए गए भवन गिर जाएंगे। तुम्हारी कल तक चलाई गई नावें डूब जाएंगी।
बुद्ध कहते हैं, 'जो भली प्रकार उपदिष्ट धर्म में धर्मानुचरण करते हैं...।' तो पहली तो बात, उपदिष्ट हो धर्म; जीवंत उपदेश की धारा से पकड़ा गया हो।
64