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________________ तू आप है अपनी रोशनाई नहीं हो जाता। वहां अगर तुम जवान को भी पाओगे तो तुम गौर से देखना ः वह किसी कारण बूढ़ा हो गया होगा, इसलिए वहां है। अन्यथा जवान किसलिए वहां होंगे? ___ हम तो संशय को ढांकने के लिए ही विश्वास का उपयोग करते हैं। लेकिन सम्यक-दृष्टि व्यक्ति अपने संशय में भी विश्वास को ही खोजता है।। ___ अगर तुम्हारे भीतर संशय उठता है कि ईश्वर नहीं है—यह इसी बात का सबूत है कि तुम ईश्वर में उत्सुक हो। यह इसी बात का सबूत है कि तुम जानना चाहते हो कि ईश्वर है या नहीं। यह इसी बात का सबूत है कि तुम्हारे भीतर खोज के अंकुर फूट रहे हैं। ___ तुम्हारा संशय तुम्हारे विश्वास की खोज है। तुम विश्वास की खोज कर रहे हो। तो जो समझदार है, वह अपने संशय में भी विश्वास की पहली पगध्वनियां सुनता है, पतझर में भी मधुमास का आगमन अनुभव करता है। जो नासमझ है, वह अपने विश्वास में भी संशय को छिपाए बैठा रहता है। उसके मंदिर में भी धोखे हैं; उसकी नमाज, उसकी प्रार्थना, इबादत के भीतर सिवाय भय के और कुछ भी नहीं है। वह लोगों से कहता है : भय बिन होय न प्रीति। वह समझाता है कि यह तो भय से ही हो रहा है सब। उसका परमात्मा भी भय का ही साकार रूप है। यह धरती रथ आकाशों का जो ठीक-ठीक देखने की कला सीख लेता है, वह संसार के विरोध में नहीं है-हो नहीं सकता। संसार में भी जगह-जगह वह परमात्मा के हस्ताक्षर पाता है। इधर फूल खिला, उधर उसके भीतर कोई परमात्मा की गंध आई। इधर एक बच्चा जन्मा, उधर उसके भीतर कुछ चैतन्य का जन्म हुआ! इधर एक व्यक्ति मरा, कि उसके भीतर यह बोध आया कि यह सब जो बाहर दिखाई पड़ता है क्षणभंगुर है! इधर एक सम्राट गिरा, उधर उसकी महत्वाकांक्षा गिरी! इस पृथ्वी को वह आकाश का रथ बना लेता है। यह धरती रथ आकाशों का - इस पृथ्वी के प्रति वह ऐसा अनुभव नहीं करता कि निंदा, पाप, नरक, घृणा। इस पृथ्वी पर भी वह अनुभव करता है कि आकाश की यात्रा चल रही है। निश्चित ही पृथ्वी आकाश में घूम रही है। महायान है यह। इससे तेज यान अभी हम नहीं बना पाए हैं, शायद कभी बना भी न पाएंगे। चौबीस घंटे सतत अनवरत अहर्निश यह यान चल रहा है, आकाश की परिक्रमा चल रही है। ____संसार निर्वाण की खोज है। पृथ्वी आकाश की तलाश है। पदार्थ भी चैतन्य होने की यात्रा पर है। चट्टान को भी नमस्कार करना। कभी तुम चट्टान थे, कभी चट्टान भी तुम जैसी हो जाएगी। समय का फासला होगा। यात्रा-पथ वही है। चट्टान भी उसी क्यू में खड़ी है जहां तुम खड़े हो-बहुत पीछे खड़ी होगी...। जीवन सतत विकास है। यहां विरोध किसी चीज में नहीं है। दुकान भी मंदिर 45
SR No.002381
Book TitleDhammapada 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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